होंठ सिले हैं
पृथ्वीनाथ 'पुष्प'
आह 'वाक' आज हकलाये हैं
'श्रुक' बेदम हैं कहीं दुबक कर
'मंदिर' चोटी पर का हतप्रभ
गुमसुम गुमसुम
चौड़ी छाती का 'परबत' सहमा सहमा है
'व्यथ' है व्याकुल
किसे सुनाये कुछ जी की
डल पद्मों के पर्ण-पर्ण पर
टीसे सहलाये अपनी
'जबर वन' के आचल में ठिठका
'परीमहल' पथराई आंखो से गिनता है।
'आखुन साहेब' के माथे पर
पल पल बिलख रही शिकनों को
'शाह हमदों साहेब' लपटों के आगे
झटक झटक बाहों को
मन ही मन चिंतन में उलझें-
कहा था क्या कुछ मैंने पर ये करते हैं क्या?
चप्पा चप्पा अंगनाई का लहू-लुहा है।
'मखदूम साहेब'
चुप्पी कब तक
अंदर ही अंदर धुनियाती
क्षण-क्षण ग्रासक चुप्पी
कब तक?
आंखें हैं तो खुली खुली पर होंठ सिले हैं।
[मूल कश्मीरी कविता से स्वयं रूपांतर]
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Courtesy: November 1996, Koshur Samachar