अपहरण
महाराज कृष्ण संतोषी
और उन्होंने मेरा अपहरण कर लिया। अंधेरे के कारण मैं अपने अपहरणकर्ताओं को देख नहीं पाया। अनुमानतः वे मेरे अपने ही गांव के थे और उनकी तादाद चार से ज्यादा नहीं लग रही थी। पकड़ते ही उन्होंने मेरे मुंह में कपड़ा ठूंस दिया और आंखों पर पट्टी बाधी । धकेलते हुए वे मुझे करीब सौ मीटर की दूरी तक ले गए होंगे। वहां से उन्होंने मुझे एक टांगे पर बिठा दिया। उन्होंने मुझे टांगे की पिछली तरफ बिठा दिया था और मैं दो बलिष्ठ लगते आदमियों के बीच ठंडे-ठंडे हवा के झोंकों को महसूस कर रहा था। पता नहीं वे मुझे किस अनिश्चित गतव्य की तरफ ले जा रहे थे। ऐसी नाजुक स्थिति में पता नहीं कौन अज्ञात शक्ति मुझे बल प्रदान कर रही थी और में अपने भीतर तनिक भी डर अनुभव नहीं कर रहा था। तभी टांगे पर बैठते ही मैं अतीत की यादों में डूबता जा रहा था।
आज सालों बाद मैं टांगे की सवारी कर रहा था - शायद कालेज के दिनों के बाद पहली बार, या दूसरी या तीसरी बार। मैं इस समय स्वयं ही आश्चर्यचकित महसूस कर रहा या क्योंकि सामान्यता ऐसी स्थिति में आदमी अपने होशो हवास खो देता है।.
"तुम्हें सर्दी तो नहीं लग रही है?" मेरे एक अपहरणकर्ता ने मुझसे पूछ्या "नहीं" मैंने संक्षिप्त उत्तर दिया।
मगर वे मेरे उत्तर से संतुष्ट नहीं हुए और उन्होंने मुझे अपना एक जैकट पहना दिया। कुछ ही देर में मुझे अपने भीतर ऊर्जा तैरती हुई अनुभव होने लगी। मैं फिर स्मृतियों में वापस लौट आया। बहुत कुछ था जो मेरी पट्टी बाधी आंखों के सामने से गुजर रहा था लेकिन वह एक दृश्य मेरे सामने ठहर सा गया था। यह दृश्य रमजान टांगे वाले का दृश्य था।
"क्या बात है ख्वाजा साहब! तुमने मेरा टांगा क्यों रुकवा दिया?” रमज्ञान का विनीत स्वर कानों में सुनाई पड़ता है।
"चल उतर हरामी कहीं का....... ." हाथ से चाबुक और फटे कॉलर को पकड़ कर ख्वाजा ने रमजाना को नीचे घसीट लिया और वह उस पर बेरहमी से चाबुक फटकारने लगा। मैं टांगे से नीचे उतरा और ख्वाजा साहब का हाथ रोक लिया।
"आखिर इसने क्या गुनाह किया है?" मैने उत्तेजित स्वर में पूछा। "चल हट दाल्य बट्टा (दालखोर पंडित ) ” और ख्वाजा ने मुझे दूर धकेल दिया।
"पूछता है बात क्या है इसकी मजाल कि तुम साले हिंदू के लिए मेरी बेटी को कालेज ले जाने से इंकार करे। मैं इस हरामी की खाल खींच दूंगा..
रमजाना को बचाने की गरज से मैंने ख्वाजा से क्षमा मागी और किसी तरह अपने रमजाना की जान बचाई। जानना चाहते हो वह ख्वाजा साहब कौन था वह पार्टी का ब्लाक प्रेजिटेट था और दिल्ली दरबार की छत्र-छाया में पलने वाला गांव का एक इज्जतदार आदमी!
टांगा दौड़ रहा था। अपहरणकर्ता खामोश थे। बीच-बीच में थोड़े पर चाबुक फटकारने का महीन स्वर
सुनाई देता था।
"सिगरेट पियोगे ?" फिर पूछा अपहरणकर्ताओं ने
"नहीं"
"भूख तो नहीं लगी है?"
"हा.... नहीं..." मेरे इस 'हा' और 'नहीं' पर वे हंसते हुए दिखाई दिए।
"बस थोड़ी देर में तुम खाना भी खाओगे"
टांगा रुक गया था। मुझे नीचे उतारा गया और किसी मकान के अंदर ले जाया गया। वहां पहुंचने के बाद ही उन्होंने मेरी पट्टी खोल दी और.......
"अरे तुम अब्दुल गनी..." मेरे मुंह से चीख निकली।
हां मैं, ताज्जुब हो रहा है ना" "बिल्कुल.."
"तुम्हारे साथ और कौन है?"
"तुम उन्हें नहीं जानते "
"फिर भी"
"पहले चाय पीयोगे या खाना ही..." विषय टालते हुए पूछा उसने।
"वा पियूंगा" मेरे मुंह से निकला। "हा तुम पुराने शौकीन हो न चाय के "
अब्दुल गनी दूसरे कमरे में चला गया और मैं सोचने
लगा कि मैं इनका अतिथि हूं या... लेकिन इन्होंने मेरा
अपहरण क्यों किया? मैं कोई महत्वपूर्ण व्यक्ति हूं नहीं।
केवल एक छोटा-मोटा कवि हूँ। तो क्या वे मुझे मार देंगे
या फिर निरंतर यंत्रणा देते हुए जिंदा रखेंगे। या.. "लो कहवा पियो" अब्दुल गनी के साथ एक औरत थी जिसके हाथ में ट्रे थी।
"आदाब मोहतरमा" मैंने संस्कारवश कहा।
"आदाब भाईजान" भाईजान संबोधन से मैं चौंक गया। चाय पीने के बाद
मैंने अब्दुल गनी से पूछा- "तुम मुझे उठा क्यों लाए?"
"बस यूं ही"
"बस यूं ही मतलब "
"बताऊंगा, सब बता देंगे। पहले खाना तो खा लें" हम सबने खाना खाया। लिदर की मछली और साग। उस पर मोटे-मोटे चावल। कुछ देर के लिए मैं सचमुच भूल गया कि मेरा अपहरण कर लिया गया है।
अब्दुल गनी और मैं गाव में अक्सर राजनीतिक बहसें किया करते थे। वह जमात का दर्शन लेकर मेरे साम्यवादी विचारों का सामना करता था। उसे मेरी लादी नियत पर आत्मीय गुस्सा आता था और मुझे उसके कट्टरपन पर तरसा अपनी राजनीतिक प्रतिद्वंद्वता के बावजूद भी हम अच्छे मित्र थे। मेरे विवाह में उन्होंने मेरे पिता की आर्थिक सहायता भी की थी। विस्थापन से पूर्व तक मैं अपने वेतन से चुकाता रहा था अब्दुल गनी का सारा कर्ज। पहले वह मेरे इन किस्तों से नाराज होता था-कहता था कि क्या तुम मुझे इतना गैर समझते हो। बाद में मेरे तर्क से परास्त वह इन किस्तों को सहज रूप में लेता रहा था।
खाने के बाद कमरे में हम सिर्फ दो थे। मैंने फिर एक बार अब्दुल गनी से अपने अपहरण का कारण जानना चाहा। लेकिन पता नहीं क्यों वह इसे मेरी जान की कीमत पर टाल रहा था। बहुत देर अतीत की यादों में हम बहुत दूर तक एक साथ तैरते रहे और फिर अचानक उसकी आंखों में मुझे कुछ विचित्र दिखाई देने लगा। "तुम पहले क्या हो कश्मीरी या भारतीया" हत्यारे की तरह मेरी आंखों में झांकते हुए उसने मुझसे पूछा।
"पहले कश्मीरी और फिर उसने मुझे वाक्प " समाप्त करने ही नहीं दिया। इस बार उसकी आवाज में
गरज थी। कहा-
सिर्फ कश्मीरी क्यों नहीं?
मैं चुप रहा।
उसने मुझे धमखते हुए कहा।
"तुम भारतीय कुत्ते हो" मैं फिर चुप रहा। अब वह दोस्त नहीं रह गया था। अब वह मेरा अपहरणकर्ता था।
"तुम काफिर हो विश्वासघाती काफिर" मेरी चुप्पी अडिग थी।
"तुम जहन्नुम में भेजने लायक हो" यथावत था मेरा मौना
"हम तुम्हें गोलियों से भून देंगे।" उसने अलमारी से बंदूक निकाली और मुझसे घृणा के भाव में कहा-
"ले छू इसे" उसने बलपूर्वक मेरा हाथ बंदूक की नली से छवा दिया। "यही नली तुझे नजात दिलाएगी मेरे काफिर यार।" 'काफिर यार!' संबोधन पर मैं एक बार फिर चौक गया।
मुर्गे की पहली बांग पर अब्दुल गनी जाग गया था। कुछ देर बाद उसने मुझे भी जगाया और कहा कि नदी
की तरफ चलें। हम दोनों नदी की जानिब चलने लगे। ठंडी-ठंडी हवाएं शरीर को चुभ रही थीं। इस सुखद चुभन
से मेरी आत्मा में छिपी कोमलता सिहर रही थी। हम दोनों ने नहाया। अब्दुल गनी ने वहीं नमाज भी अदा की।
"घर वापस चलें?" उसने कहा।
"हां, लेकिन एक बात पूछूं?"
"वह क्या?"
"यह तुम मुझे किस दुविधा में रखे हुए हो।" दोस्ती भी निभाते हो और दुशमनी भी प्रदर्शित करते हो। "
"अब तुम्हारी क्या मंशा है?" बीच में ही टोकते हुए उसने पूछा।
"अब यह नाटक बंद कर दो”
"नाटक" वह हंसा दोपहर के खाने में गोशत पकाया गया था। साग भी था जो सीधे ढंग से पकाया गया था। कमरे में हमारे अतिरिक्त और कोई नहीं था। पता नहीं मेरे दूसरे अपहरणकर्ता कहां गए थे।
"तुम बड़े कम्यूनिस्ट थे आखिर हिंदू ही निकले ना "घृमा से मेरी तरफ देखते हुए मुझसे कहा उसने में चाहता तो इसका उत्तर उसे दे सकता था लेकिन मेरे मन ने मुझे रोका। कहा कि तर्क बघारने की कोई आवश्यकता नहीं।
"क्या तुम आजादी नहीं चाहते?" उसने इस बार कुछ व्यंग्य के अंदाज में पूछा। मगर मैं अपने मौन में मजबूत
था। "तुम बोलोगे नहीं तो मैं तुम्हें गोली मार दूंगा।" उसकी आवाज में स्पष्ट धमकी थी।
"आखिर क्या बोलूं" मैंने धीरे से कहा ।
"क्यों भूल गए वे पिछले सारे दिन, जब बड़ा बहस करता था मेरे साथ । "
"तब तुम थे"
"अब?”
"अब मेरे अपहरणकर्ता हो" वह फिर एक बार हंसा। उसकी हंसी से मेरे सारे शरीर में आग लग जाती थी। लेकिन सब कुछ सहन करना पड़ रहा था।
"तुमने आज तक कितनी बार मुखबरी की है?" उसके इस प्रश्न से मैं घबरा गया। अखबार में पढ़ी मुखबरों की हत्याओं का विवरण मन में भय पैदा करने लगा।
“मुखबिरी! और मुझसे नहीं, नहीं, अब्दुल गनी! तुम मुझसे मजाक कर रहो हो" साहस बटोरते हुए मैंने कहा। "गलत बिल्कुल गलत तुम हरामी मुखबिर हो... हमें पकड़वाते हो... झूठी मुठभेड़ों में मरवाते हो, हमें कुत्तों की तरह. "
"मेरा यकीन करो, अब्दुल गनी। मां कसम अगर मैंने किसी पुलिसवाले को नमस्ते तक कहा हो"।
"मैं कैसे यकीन करू"
"आपकी मर्जी" हारते हुए मैंने कहा ।
संध्या नमकीन चाय का समावार लेकर वही मोहतरमा आई जिसने मुझे भाईजान कहा था। साथ कुछ कुल्चे भी लाए थे। नमकीन चाय के पूरे चार प्याले सुढ़कने के बाद मैं काफी तृप्त अनुभव कर रहा था। अपहरण का संत्रास कुछ पलों के लिए मैं भूल गया था।
"मां कैसी है? " अब्दुल गनी ने पूछा।
"बस ठीक है"
"गठिया का वह रोग ठीक हो गया?"
अब वह स्वर्ग में हो ठीक हो जाएगी।" "नहीं, ऐसा मत कहो"
“और नहीं तो क्या ! मेरी हत्या के बाद तुम पूछ लेना उससे उसका हाल"।
वह चुप रहा। उसकी आंखों में कुछ तरल कतरे नमूदार हुए और फिर कहीं खो गए। मेरे बाकी अपहरणकर्ता भी और आए थे। आते ही उन्होंने मेरा मिजाज पूछा। मुझे साफ धुले कपड़े दिए और नया सिलाया फिरना" "अच्छा फिर मिलेंगे” कहकर उन्होंने मुझे सलाम किया और नीचे खड़ी मारुति में बैठ गए।
मेरी आंखों पर फिर एक बार पट्टी बांधी गई और मुझे किसी अज्ञात स्थान की तरफ ले जाया गया। "तुम्हारी कोई अंतिम इच्छा है?" मुझसे किसी अपरिचित स्वर ने पूछा। मैं स्तब्ध रह गया। कानों में मृत्यु की घंटियां सुनाई देने लगीं। मैंने मन ही मन मां, बहनों, पत्नी और बच्चों को याद किया। उनसे असमय बिछुड़ने के लिए क्षमा मांगी। मैंने उन किताबों का भी स्मरण किया जिन्हें पढ़ने से मैं वंचित होता जा रहा था।
"तुम्हारी कोई अंतिम इच्छा?" फिर वही अपरिचित स्वर सुनाई दिया। "हां है' मैंने अकस्मात अपने आपको कहते हुए सुना।
"क्या है वह इच्छा ?” उन सबने समवेत स्वरों में उत्सुकता प्रकट की।
"मैं अपने गांव का अंतिम बार एक पूरा चक्कर लगाना चाहता हूँ" रुआंसे स्वर में मैंने कहा।
"लेकिन क्यों?"
"मैं अपने गांव के तमाम मंजर आंखों में भरकर मरना चाहता हूँ।"
"तुम गांव को बहुत चाहते हो।"
"हो.. बहुत...
लगभग आधा घंटा बीता होगा। केई कुछ भी नहीं बोला। वातावरण में जैसे सन्नाटा उतर आया था। मेरे लिए पल प्रतिपल सांस लेना भी कठिन हो रहा था। अचानक कोई पदचाप मेरी तरफ आती सुनाई दी। कोई मेरी पट्टी को खोलने लगा था। धीरे-धीरे पट्टी खुलती रही और मेरे पैरों पर गिर पड़ी। कोई आकृति मेरी आंखों में परिचय पाने लगी।
और उस समय मेरे आश्चर्य का कोई ठिकाना नहीं रहा जब मैंने सामने अब्दुल गनी को आंखों में आंसू लिए हुए देखा।
"मुझे क्यों तड़पा रहे हो... मार दो गोली...". "नहीं मेरे यार! मैंने तुम्हारा अपहरण इसलिए नहीं किया था। मैं तो तुम से मिलना चाहता था, तुमसे पुराने दिनों की तरह बातें करना चाहता था..." इसके आगे वह कुछ भी नहीं कह सका। मेरे भीतर भी प्यार का एक ज्वार आया था। हम दोनों ने एक-दूसरे को गले लगाया। उसने मुझे इस तरह कस लिया था कि मेरी नींद टूट गई। तो क्या यह एक सपना था...? लेकिन क्या इस सपने का कहीं कोई यथार्थ नहीं है....! है भी या फिर आधा सच और आघा - द्वारा / चीफ जनरल मैनेजर टेलीकॉम, जे. के. सर्कल, जम्मू- 180001
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साभार:- महाराज कृष्ण संतोषी एंव अप्रैल-मई 1995 कोशुर समाचार