दर्दे-दिल, दर्दे-जिगर, दर्दे- कश्मीर

दर्दे-दिल, दर्दे-जिगर, दर्दे- कश्मीर


 

"दर्दे-दिल, दर्दे-जिगर, दर्दे- कश्मीर"

प्रदीप कौल  

कला स्नातक और मुद्रण कला में पारंगत प्रदीप कौल का कार्यक्षेत्र काशी, भुवनेश्वर, दिल्ली आदि रहा है। अपने ताया श्री बद्रीनाथ कौल, पूर्व समाचार संपादक दैनिक मिलाप (उर्दू) का वरदहस्त उन पर रहा और वह उनके प्रेरक हैं। के. के. बिड़ला फाउंडेशन पुरस्कार से सम्मानित डा शिवप्रसाद सिंह इनके गुरु हैं। मात्र पांच वर्षों से लेखन यात्रा पर चल पड़े प्रदीप जी विभिन्न विधाओं पर विभिन्न विषयों पर, विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं एवं दैनिक पत्रों में लिखते रहते हैं। मानवतावादी दृष्टिकोण के साथ अत्यंत संवेदनशील है। अधिकांश लेखन 'स्वान्तः सुखाय' ही करते हैं। हास्य-व्यंग लेखन में इनकी विशेष रुचि है। -च. ल.स.

कश्मीर की समस्या पर काफी मराजमारी हो चुकी है। बहुत से लोगों ने बहुत कुछ लिखा, कहा और सुना है। ऐसे-ऐसे लोगों ने भी दर्जनों पन्नों रंग डाले है जिन्हें ठीक से शायद जुग्राफिया भी नहीं मालूम। जिन्हें वस्तुतः समस्या का समाधान नहीं करना पड़ता, कई बार उनके लिए बकवास करना व बकवास फैलाना बड़ा सरल हुआ करता है। आखिर लेखन का धर्म भी कोई चीज है या नहीं? अपनी पकड़ व अपनी उपस्थिति का अहसास नहीं दिलायेंगे तो फिर दालबाटी या मुर्ग मसल्लम का इंतजाम कैसे होगा? बस्तु लिखने के लिए लिखना है, समस्या समाधान के लिए नहीं। बेशक अखबारों व पत्र-पत्रिकाओं की कतरनों को जोड़-तोड़ कर ही क्यों न लिखना पड़े। खैर यह उनकी समस्या है, मेरी नहीं।

पतंगबाजी का अपना ही एक आनंद है। ऊपर पेंचे लड़ती है और नीचे चोंचे। यह लड़ाई का सिलसिला खास खास मौकों पर एक अर्से से बदस्तूर जारी है। काश्मीर में भी एक जमाने में इस पतंगबाजी जैसी राजनीति चला करती थी। मुंह जुबानी लोगबाग परस्पर कितना भी लड़ लें, लेकिन जूतम पैजार या मारपीट जैसी घटिया बातें नहीं होती थीं। लोग शालीन थे। आज भी हैं। इसमें धर्म का दखल न था। आज आयातित उग्रवाद ने पूरा माहौल ही बदल डाला है। धार्मिक अड़गेबाजी को हथियार बना दिया गया है।

अन्नपूर्णा का अपमान

कहते हैं- 'सब दिन रहत न एक समाना' परंतु यदि धार्मिक परिप्रेक्ष्य में देखा जाए तो हिंदुओं ने गलतियां की थीं। हम मां अन्नपूर्णा को बड़ा आदर-मान देते आए हैं, पूजा करते आए हैं। उसी अन्नपूर्णा का वहां जबरदस्त अपमान हुआ था। शायद विशेषकर हिंदुओं का दाना-पानी भी इसी कारण उस पुण्यभूमि से उठ गया। मुझे याद है। मैं तीसरी चौथी कक्षा में पढ़ा करता और माह-दो माह के लिए हमारा परिवार छुट्टियां मनाने श्रीनगर जाता। उन दिनों अधिकांश मकान पत्थर, मिट्टी लकड़ी के होते थे। छतें नक्काशीदार लकड़ी या टीन की ढलुवां हुआ करती थीं, ताकि छतों पर बर्फ रुक न सके। खिड़कियां मुगल शैली में लकड़ी पर गड़ी नक्काशी का उत्कृष्ट नमूना थीं। उतनी सुंदर नक्काशी तो सहारनपुर व आस-पास के क्षेत्रों में काश्मीरी विस्थापित आज नहीं कर पा रहे। भोर में घरों की बहू-बेटियां पूरा घर लीप डालती थीं। पूरा घर मिट्टी की सोंधी महक से मानो महक उठता। पूरा वातावरण शुचितापूर्ण हो उठता। अनाज पर भारी सब्सिडी थी । लकड़ी पर भोजन पकता । देगों में चावल चढ़ाए जाते थे। अधिकांशतया साग मिट्टी की हांडी व लकड़ी के कलछुल से पकता। आज भी स्वाद याद करता हूं तो बस, मानो पूरे भोजन की सुगधि आज भी मन-मस्तिष्क में रच-बस जाती है। चाय पीने व भोजन के लिए कांसे के बर्तनों का ही प्रयोग होता था। हिंदू परिवारों में चीनी मिट्टी के पात्रों का प्रयोग कतई वर्जित था।

शादी-विवाह आदि में 30-40 प्रकार के व्यंजन बनाए जाते। यह सब इतना होता था कि यदि कोई भात के साथ चुटकी चुटकी भर भी खाए तो पेट मजे में भर जाता। हां, पनीर की सब्जी का दमआलू (यहां आलूदम) प्रमुख भूमिका निभाते। तिस पर अमृत-सा ठंडा जल कि पत्थर भी हजम हो जाए। भात पकाने में देगची के नीचे भात की जली हुई पपड़ी, जिसे काश्मीरी भाषा में 'फोहरी' कहते हैं, बच जाती थी। उन दिनों मात्र जूठन खाकर पलने वाले गली के कुत्ते भी भारी-भरकम व भयानक दीखते थे। एक बर्तन में सब्जी के छिलके, मांड व बचा शेष चावल और 'फोहरी' उठाकर गली में फेंक दिए जाते। चूंकि यह काम रसोई की खिड़की से आंख मूंद कर किया जाता था इसलिए कई बार 'स्टेड-बूटेड' जेंटलमैन भी उस बौछार की चपेट में आकर बंदर बन जाते थे। लब्बोलुबाब यह कि जिस घर की गली के सामने जितनी अधिक 'फोहरी' पड़ी रहती वह उतना ही अधिक धनीमानी व संपन्न समझा जाता। हालत यह थी कि भोजन में गेहूं के आटे की रोटी खाने वालों को हेय दृष्टि से देखा-सुना जाता था। बड़े से बड़े बिजनेस मैन भी सरकारी चपरासी तक के मुकाबले कोई अहमियत नहीं रखते थे। क्योंकि बिजनेस के घाटे से तो कंगाली आ सकती है। परंतु एक सरकारी नौकर प्रतिमाह मिलने वाली तनख्वाह के कारण किसी तोपची से कम न हुआ करता था।

मुसलमान आदर करते थे

अशिक्षा एवं रूढ़िवादिता के कारण मुसलमानों की दशा तो अधिक बदत्तर थी। पिछड़े व दलित वर्गों द्वारा किए जाने वाले सारे कार्य मुसलमान ही किया करते थे। हस्लाम, धोबी, नाई, भिस्ती, दर्जी, मल्लाह, जिल्दसाज राज-मिली, लकड़हारे दूधिए आदि का कार्य मुसलमान ही करते थे। मुसलमान हिंदुओं का बड़ा आदर बावजूद करते और उन्हें 'पंडित साब' कहकर संबोधित करते। सामाजिक स्तर व रहन-सहन मे भारी अंतर के सभी में परस्पर बड़ा प्रेम था। सभी धर्मों के अनुयायी परस्पर सहयोग करते और दुःख सुख में एक-दूसरे की सहायता भी करते थे। सभी एक-दूसरे के धर्मों व धर्मस्थलों का सम्मान करते थे। आज भी अमरनाथ की गुफा की देखभाल एक मुस्लिम खानदान पीढ़ियों से करता चला आ रहा है। 'ऋषिपीर' का मंदिर एक दरगाह भी है। यहां हिंदू और मुसलमान समान रूप से दर्शन एवं मनौती मानते चले आए हैं। पर्वत पर अकबरी - किला और मां शारिका का राम के गंगा-जमुनी मिली-जुली सांझी संस्कृति का प्रतीक है। पहाड़ी के ऊंचे टीले पर आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित विशाल शिवलिंग आज भी है। वहां की आरती व घंटों की ध्वनि दूर-दूर तक बराबर सुनी जा सकती है। 'क्षीर-भवानी' के मेले ठेले को भला कौन भूल सकता है? परंतु स्वप्न बिखर रहे हैं। आर्थिक रूप से काश्मीर की घाटी एक सौ वर्ष पिछड़ गई है। घाटी को इंतजार है देश-विदेश से आने वाले लाखों पर्यटकों के स्वागत का। झरने व्यर्थ ही वह रहे हैं और काश्मीर में खिलने वाली फूलों की कलिया अपना रूप, श्रृंगार दिखाए बिना ही मुरझा रही हैं। कौन दैत्य है इस चमन को उजाड़ने का जिम्मेदार? निश्चय ही राजनैतिक दोगलापन शायद आज कश्मीर की हालत वैसी ही है जैसी विपक्ष के बगैर संसद की।

काली राजनीति का काला पक्ष

अब जबकि बात राजनीति पर आन टिकी है तो मैं इस सिलसिले को पंजाब से शुरू करना चाहूंगा। लगभग दस वर्षों तक पंजाब में उग्रवादियों का दबदबा बना रहा। उग्रवाद के नाम पर टुच्चे अपराधियों तक ने पंजाब की जनता पर कहर ढाए। पंजाब पुलिस प्रमुख के रूप में पहले श्री रिबेरो और बाद में श्री के. पी. एस. गिल ने महत्वपूर्ण भूमिकाएं निभाई। गिल साहब और पुलिस फोर्स भी वही रही। सरकार एक बनाई गई। मात्र बेअंत सिंह जी के मुख्यमंत्री बनते ही मानो रातों-रात चमत्कार-सा हो गया। ऐसा कौन-सा करिश्मा था कि कांग्रेस की सरकार बनते ही उग्रवादियों को अपनी जान के लाले पड़ते दिखाई देने लगे? बेशक इसमें कांग्रेस राजनैतिक चाल की मछली महक मार रही हो परंतु पंजाब शांत हो गया। यह हर्ष का विषय है। परंतु क्या यह सब कुछ राजनीति के गंदे व घटिया पक्ष को उजागर करके जनता तक गलत संदेश नहीं पहुंचा रहा? लगता है जब तक कांग्रेस को अपनी सरकार बनने का अथवा सत्ता में भागीदारी का विश्वास न हो जाए, काश्मीर में स्थाई शांति नहीं हो सकती। यह काली राजनीति का काला पक्ष है। हम पाकिस्तान के नाम को रोते हैं। कभी ऐसा भी तो हो कि पाकिस्तान हमसे पिटकर हमारे नाम को रोता नजर आए। यह तो वही बात जैसे दो बच्चे परस्पर लड़ें और चिढ़ायें, फिर मां-बाप (अमेरिका) के आगे रोएं। फिर मां-बाप के दायें-बाये होते ही पुराने क्रियाकलाप पुनः दोहरायें।

घर सुब्यवस्थित नहीं

सबसे बड़ी बात है कि हमारा अपना ही घर सुव्यवस्थित नहीं। और तो और घर के भेदी की तरह लंका ढाहने वालों की भी कमी नहीं। काश्मीर समस्या पर पायलट और चव्हाण का टकराव भी मामला लंबा खींच ले गया। ऊपर से राजनैतिक इच्छाशक्ति का सर्वथा अभाव और ढुलमुल 'एक्शन प्लान' ने रही सही कसर पूरी कर दी। जो कुछ चटनी चुटनी शेष बचा था उसे सही समन्वय के अभाव ने पूरा कर दिया। परिणामस्वरूप ढेरों विद्वान, बुद्धिजीवी, तकनीशियन व निर्दोष आम जनता का सफाया उग्रवादी तेजी से करने लग पड़े।

हमारे यहां का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि सुर्खियों में रहने के लिए लोग बिना समझे बूझे वक्तव्य तो दे देते हैं, परंतु अमलीजामा कैसा पहनाया जाए इस पर कुछ कहने से कतराते है। अर्थात् निजी छवि इंसानी जानों से बढ़कर हो जाती है। काश्मीर के कर्मधारों में कई नए-पुराने मंत्री, संसद सदस्य व राजनेता कहने भर को ही काश्मीरी राजनीति के सूत्रधार रह गए हैं। जब जनता दल के मुहम्मद सईद 'मुफ्ती' मुफ्त में मंत्री बने थे तो रुबिया अपहरण कांड के नाटक ने वादी की हवा का रुख ही बदल दिया। इन जैसे कई रहनुमाओं ने कश्मीर की फिजाओं को बर्बाद करके खिजाओं में बदल डाला है इनके अपराध क्षम्य नहीं हो सकते। ऊपर की अदालत सबसे बड़ी अदालत है। वहां सुनवाई उन्हीं की होती है जो सुनने-देखने योग्य होते हैं। लोग लाचारी और बेचारगी पर ऐय्याशी करने वाले ऐय्याशों की नहीं।

काश! कोई लौटा दे बीते क्षण

विस्थापितों के हृदय फटे हुए हैं। घाटी से वाबस्ता उनकी यादों के अतिरिक्त छूटा हुआ माल- असबाब - जर जमीन उनके हृदयों के कचोटते हैं। महक भरे दिन, ठंडी रातें, मंडली के गान, तुम्बखनार (एक साईड से मढ़ा हुआ गुलदस्तेनुमा ढोल) की थाप, और संतूर रबाब की गूंज से ढेरों लोग महरूम हो गए हैं। आबो-हवा की तो बात ही दूर की है। ऊंचे चिनारों की हरियाली व खुश्बू, झील के नजारे, हाऊस बोट, शिकारे, फल-फूल का आनंद न जाने कब मयस्सर होगा, कहना कठिन है। सर्दियों में बर्फीली चोटियां, गुलमर्ग, सोनमर्ग, टंगमर्ग आदि स्थानों पर बर्फ की धवल सफेद चादर, स्कीइंग का आनंद, धूप निकलने पर बर्फ से ढकी पहाड़ों की चोटियों पर बनने वाली अस्थायी आकृतियां कैसे कोई भूल सकता है। पानी की झील में 'गे' पर सपरिवार नौका- बिहार एवं भोजन-पानी का आनंद, निशात बाग, शालीमार बाग व हारवन का नैसर्गिक व प्राकृतिक सौंदर्य, चार चिनारी का एकांत खेतों में खेतिहरों का लोकगीत गाते हुए एकरूप काम करना, हवाओं की भीनी-भीनी खुशबुएं, यत्र-तत्र छोटे-छोटे अनेकों झरनों का प्रवास, शांत, सुरम्य व सौम्य वातावरण किसी स्वर्ग से कम आगवित नहीं करते। खेतों के किनारे खमीरी-तम्बाकू के हुक्के गुड़गुड़ाते, सुस्ताते, मुस्कराते, एक दूसरे का सुख-दुख बतियाते किसान, दूर सड़क पर आते वाहन, छोटी दीखती बसें, बसों से उतरते चढ़ते इक्का-दुक् यात्री] डाकियों द्वारा खाकी वर्दी में चिट्टी-पाती या आदान-प्रदान, किसी को बुलाए जाने पर जोरदार आवाज का पहाड़ियों से टकराकर बार-बार दूर तक गूंजती प्रतिध्वनि में शायद ही कभी भूल सकूंगा। आज जबकि वह स्वर्ग, नर्क में तब्दील कर दिया गया है, हमारे कर्णधार अभी व्यूहरचना भी पूरी तौर से तय नहीं कर पा रहे हैं।

मैं अच्छी तरह जानता हूं कि जिन लोगों ने काश्मीर घाटी की अंतरात्मा को देखा है या महसूस किया है उन्हें वहां न जा पाने की भयंकर त्रासदी झेलनी पड़ रही होगी। काश, कोई लौटा दे हमारे बीते दिन।

हुए काश्मीर के भारत में पूर्ण विलय के पश्चात कश्मीर के कई मुख्यमंत्री हुए। स्व शेख अब्दुल्ला, गुलाम मुहम्मद बख्शी, मीरकासिम, फारूख अब्दुल्ला आदि मुख्य हुए। अल्पसंख्यक हिंदुओं के हित की बातें तो दूर, पूर्णरूप से इन्होंने मुस्लिमों का हित भी न किया। काश्मीर के प्रति केंद्र सरकारों की दुखती रगों के कारण इन्होंने केंद्र के प्रतिवर्ष प्राप्त होने वाले धन का प्रयोग भी स्वयं एवं लग्गू भग्गु नाते रिश्तेदारों के लिए ही किया। आम जनों तक विनियोजित धन का अधिकांश लाभ न पहुंच सका। परिणामस्वरूप, हिंदू तो हिंदू, मुस्लिम जन भी बाहर की कमाई पर निर्भर रहने लगे। अतएव हिंदुओं का पलायन कोई नई बात नहीं है अन्तर इतना ही है कि पलायन की जो दर पहले मन्थर गति से चल रही थी, वह दर उग्रवादियों से मिलने वाली धमकियों से तीव्रतम हो गई।

काश्मीर की धरती धर्मों का विलक्षण समन्वित रूप रही है। डोड़ा-किश्तवार की सांझी संस्कृति, लेह-लद्दाख के विशुद्ध रक्त वर्णीय बौद्ध धर्म के अनुयायी आर्य, गुर्जर, हिंदू, मुस्लिम, सिख और जम्मू क्षेत्र के रणबांकुरे डोगरे एक इंद्रधनुष के रंगों की अनेक पट्टियों की तरह साथ-साथ रहते चले आए हैं। आज भी जगह-जगह मुस्लिम जन विस्थापित हिंदुओं के घरों एवं माल की रक्षा कर रहे हैं। यहां तक कि कई हिंदू परिवार अपने मुस्लिम पड़ोसियों को अपने घरों की चाबियां तक दे आए हैं। शाबाश है सभी धर्मसंप्रदायों को, जिन्होंने आज की विपरीत परिस्थितियों में भी पारंपरिक पारस्परिक प्रेम व विश्वास बनाए रखा है।

जो नवयुवक गुमराह किए गए बताए जाते हैं वस्तुतः उन्हें गुमराह नहीं कह सकते गुमराह तो वे लोग होते हैं जिनके पास राह और चाह होती है। घरेलू दारिद्रय दैन्य और कलह ने उनका जीवन नर्क बना दिया होता है। पढ़-लिखकर भी युवा बेरोजगार रहेगा तो घर वालों की आंखों में खटकेगा ही। इस जमाने में कौन किसे उन्नति करता देख पाता है? अतएव चंद सामर्थ्यवान (?) लोग ऐसे लोगों की दबी भावनाओं के आक्रोश को कुरेद कर आग लगवाते है ताकि घर चाहे किसी का जले, परंतु ठंड में ताप सेंकने का सुख उन्हें प्राप्त होता रहे। समुचित माहौल का अभाव, अधकचरी शिक्षा, क्षुद्र मानसिकता ऐसी अधपकी रोटियों को कभी न पूरी होने वाली हवस के अग्निकुंड में समिधा के रूप में झोंक दी जाती है। इसके मूल में जनसंख्या की अनाप-शनाप वृद्धि माता-पिता की अति और सरकारों का गैर-जिम्मेदाराना और सौतेला व्यवहार है। धारा 370 समाप्त करना कोई उपाए ही नहीं है।

आपरेशन की जरूरत

यह तो एक दमन मात्र होगा सरकारी संगठन, नीतिया, चंद भ्रष्टमंत्री और पदाधिकारी भी अकर्मण्यता, अकुशलता एवं अदूरदर्शिता के कारण नरमेध के पाप के बराबर के हिस्सेदार हैं। जब तक नीयत साफ नहीं होगीं, नियति कदापि साथ नहीं देगी। आज काश्मीर और काश्मीरियत दोनों ही मर रहे हैं। इन्हें मात्र मरहम पट्टी नहीं वरन प्रकारांतर से कंप्यूटराईज्ड तकनीक से आपरेशन की जरूरत है। सड़ी-गली शिक्षा पाए लोगों के सही 'ब्रेन वाश' की भी जरूरत है। जब एक लक्ष्य हो साथ कर सभी निशाने एक साथ सर नहीं कर लिए जाते तब तक सारे प्रयास व्यर्थ रहेंगे। जब तक पूरे देश में लोगों को योजनाओं का पूरा लाभ पहुंचाकर उनसे नियम-कानूनों का पालन नहीं करवाया जाएगा ऐसी समस्याएं सर्वत्र बनी रहेंगी। इसके लिए जाति, उपजाति, वर्णभेद, वर्गभेद एवं जाति या भाषा का चक्कर त्यागकर सरकारों को काम करना ही पड़ेगा। इसमें कई सरकारें आएंगी भी और गिरेगी भी। परंतु लोग नियम कानूनों का पालन ईमानदारी से करने लगेंगे। वोट-बैंकों का मोह भूलना व छोड़ना ही पड़ेगा। तभी देश के प्रत्येक क्षेत्र व प्रत्येक इकाई का कल्याण संभव है। यह

विश्व के महानतम लोकतंत्र की बहुत बड़ी उपलब्धि होगी। जो देश भारत से वैर भाव रखते हैं उनसे संबंधों की हमें आवश्यकता नहीं। भारत विश्व का सबसे बड़ा और बेहतरीन बाजार है। जो स्वयं को विश्व का आका या काका समझते हैं उन्हें फाकाकशी की नौबत आ जाएगी।

इतनी क्षमता तो भारत में है ही विशेषकर पाकिस्तान जैसे देशों को हम सही सबक दे सकते हैं, क्योंकि आज भारत की सैन्यशक्ति ‘अस्त्र-शस्त्रों के पीछे कुशलतम मस्तिष्क' का गौरव लिए हुए है। पूर्व में हमारे पूर्वजों ने बहुत कुछ सहा और झेला है। त्याग, तपस्या, संयम एवं आत्मनियंत्रण भारत से बेहतर विश्व में कहां मिलेगा? हमें जरूरत है मात्र दृढ़ राजनैतिक इच्छा शक्ति की।

सी. के.-33/11 नीलकंठ, वाराणसी-221001

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साभार:- प्रदीप कौल एंव अप्रैल-मई 1995 कोशुर समाचार