कश्मीरी काव्य में रामकथा
डा शिबन कृष्ण रैणा
कश्मीरी काव्य में वैष्णव भक्ति का निरूपण उन्नीसवीं शताब्दी के आसपास से देखने को मिलता है। कश्मीर में रामभक्ति का विकास एक सशक्त सप्रदाय के रूप में नहीं हो पाया। इसका प्रमुख कारण है कि कश्मीर-मंडल शताब्दियों तक शैवमत का प्रधान केंद्र रहा। यहां के भक्त कवि एवं धर्म परायण प्रबुद्ध जन इसी मत के सैद्धांतिक चिंतन-मनन तक सीमित रहे भौगोलिक सीमाओं के कारण भी यह प्रदेश मध्य भारत के वैष्णव भक्ति आदोलन से सीधे जुड़ नहीं सका। कालांतर में वैष्णव भक्ति की सशक्त स्त्रोतस्विनी जब समूचे देश में प्रवाहित होने लगी तब कश्मीर मंडल भी इससे अछूता नहीं रह सका।
दरअसल कश्मीर में वैष्णव-भक्ति के प्रचार-प्रसार का श्रेय उन घुमक्कड साधुओं, संतों एवं वैष्णव भक्तजनों को जाता है, जो उन्नीसवीं शताब्दी में मध्य भारत से इस प्रदेश में आए और राम कृष्ण भक्ति का सूत्रपात किया। यहां पर यह रेखांकित करना अनुचित नहीं होगा कि शैव संप्रदाय के समांतर कश्मीर में सगुण भक्ति की क्षीण धारा तो प्रवाहित होती रही किंतु एक वेगवती धारा का रूप ग्रहण करने में वह असमर्थ रही। इधर जब शैव संप्रदाय के अनुयायी विदेशी सांस्कृतिक आक्रमण से आक्रात हो उठे तो निराश-निःसहाय होकर वे विष्णु के अवतारी रूप में त्राण सहारा ढूंढने लगे अंतर केवल इतना रहा कि जिस सगुण भक्ति, विशेषकर रामभक्ति आंदोलन ने, मध्य भारत के कवि को सोलहवीं शती में विषयक सुंदर काव्य रचनाओं की सृष्टि हुई, जिनमें प्रकाशराम कृत रामावतारचरित कश्मीरी काव्य परंपरा में अपनी सुंदर वर्णन-शैली, भक्ति-विह्वलता कथ-सयोजन तथा काव्य-सौंदर्य की दृष्टि से विशेष महत्व रखता है।
रामावतारचरित
रामावतारचरित की मूलकथा का आधार यद्यपि वाल्मीकि कृत रामायण है, तथापि कथासूत्र को कवि ने अपनी प्रतिभा और दृष्टि के अनुरूप ढालने का सुंदर प्रयास किया है। कई स्थानों पर काव्यकार ने कथा संयोजन में किन्हीं नूतन (विलक्षण अथवा मौलिक) मान्यताओं की उद्घोषणा की है। सीता-जन्म के संबध में कवि की मान्यता यह है कि सीता, दरअसल, रावण-मंदोदरी की पुत्री थी। मदोदरी एक अप्सरा थी, जिसकी शादी रावण से हुई थी। उनके एक पुत्री हुई, जिसे ज्योतिषियों ने रावण कुल के लिए घातक बताया । फलस्वरूप मंदोदरी उसके जन्म लेते ही, अपने पति रावण को बताए बिना, उसे एक संदूक में बंद कर नदी में बहा देती है। बाद में राजा जनक यज्ञ की तैयारी के दौरान नदी किनारे उस पाकर कृतकृत्य हो उठते हैं। तभी लंका में अपहृत सीता को देखकर मंदोदरी वात्सल्याधिक्य से विभोर हो उठती है:
तुजिन तमि कौछि क्यथ हाथ ललनोवन
गेमच कौलि यैलि लेबन लौलि क्यथ सोबुन
बुछिव तस माजि मा माजुक मुशुक आव
लबन यैलि छस बबन दौद ठींचि तस द्राव ।
(पृ. 145)
तब उस मंदोदरी ने उसे गोद में उठाकर झुलाया तथा पानी में फेकी उस सीता को पुनः पाकर अपने अंक में सुलाया। अहा, अपने रक्त मांस की गंध पाकर उस मां के स्तनों में दूध की धारा द्रुत गति से फूट पड़ी।
रामावतारचरित में आई दूसरी कथा विलक्षणता राम द्वारा सीता के परित्याग की है। सीता का वनवास दिलाने में रजक घटना को मुख्य कारण न मानकर कवि ने सीता की छोटी ननद को दोषी ठहराया है, जो पति-पत्नी के पावन प्रेम में यों फूट डालती है। एक दिन वह भाभी (सीता जी) से पूछती है कि रावण का आकार कैसा था, तनिक -उसका हुलिया तो बताना। सीता जी सहज भाव से कागज पर रावण का एक रेखाचित्र बना देती है, जिसे ननद अपने भाई को दिखाकर पति-पत्नी के पावन प्रेम में यों फूट डालती है:
दोपुन तस कुन यि कुछ बायो यि क्या छुय
दोहय सीता यथ कुन बुछित तुलान हुव
मे नीमस चूरि पतअ आसि पान मारान
बदन वाराह तअ नेतरव खून हारान (पृ. 399 )
रावण का चित्र दिखाकर देखो भैया, यह क्या है। सीता इसे देख-देख रोज विलाप करती है। जबसे मैंने यह चित्र चुरा लिया है, तब से उनकी आंखों से अश्रुधारा बहे जा रही है। यदि वह यह जान जाए कि ननद ने उसका यह कागज चित्र चुरा लिया है तो मुझे जिंदा नहीं छोड़ेगी।
मक्केश्वर लिंग से वंचित
रामावतारचरित के युद्धकांड प्रकरण में उपलब्ध एक अत्यंत अद्भु और विरल प्रसंग मक्केश्वर लिंग से संबंधित है, जो प्रायः अन्य रामायणों में नहीं मिलता है। वह प्रसंग जितना दिलचस्प है, उतना ही गुदगुदाने वाला भी। शिव रावण द्वारा याचना करने पर उसे युद्ध में विजयी होने के लिए एक लिंग (मक्केश्वर) दे देते हैं और कहते हैं कि जा, यह तेरी रक्षा करेगा, मगर ले जाते समय इसे मार्ग में कहीं पर भी धरती पर नहीं रखना।
लिंग को अपने हाथों में आदरपूर्वक थामकर आकाश मार्ग द्वारा लका की ओर प्रयाण करते हैं। रास्ते में उन्हें लघुशंका की आवश्यकता होती है। वे आकाश से नीचे उतरते हैं तथा इस असमजस में पड़ते हैं कि लिंग को कहां रखें, तभी ब्राह्मण वेश में नारद मुनि वहां पर प्रगट होते हैं, जो रावण की दुविधा भाप जाते हैं रावण लिंग उनके हाथामें मे यह कहकर पकड़ा कर जाते हैं कि वे अभी निवृत्त होकर आ रहे हैं। रावण लघुशंका से निवृत्त हो ही नहीं पाता। संभवत वह प्रभु की लीला थी। काफी देर तक प्रतीक्षा करने के उपरात नारद जी लिंग धरती पर रखकर चले जाते हैं। तब रावण के खूब प्रयत्न करने पर भी लिंग उस स्थान से हिलता नहीं है और इस प्रकार शिव द्वारा प्रदत्त लिंग की शक्ति का उपयोग करने से रावण वचित हो जाता है। (पृ 295 297)
शिव से लंका मांगी
रामावतारचरित में उल्लिखित एक दिलचस्प कथा-प्रसंग लका-निर्माण के संबंध में है। पार्वती जी ने एक दिन अपने निवास हेतु भवन निर्माण की इच्छा शिव जी के सम्मुख व्यक्त की। विश्वकर्मा द्वारा शिव जी की आज्ञा पर एक सुंदर भवन बनाया गया। भवन के लिए स्थान के चयन के बारे में रामावतारचरित में एक रोचक प्रसंग मिलता है। गरुड़ एक दिन क्षुधापीड़ित होकर कश्यप के पास गए और कुछ खाने को मांगा। कश्यप ने उसे कहा जा उस मदमस्त हाथी और ग्राह को खा डाल जो तीन सौ कोस ऊंचे और उससे भी दुगुने लंबे हैं। वे दोनों स समय युद्ध कर रहे हैं। गरुड़ वायु के वेग की तरह उड़ा और उन पर टूट पड़ा तथा अपने दोनों पंजों में पकड़कर उन्हें आकाश मार्ग की ओर ले गया। भूख मिटाने के लिए वह एक विशालकाय वृक्ष पर बैठ गया। भार से वृक्ष की एक डाल टूटकर जब गिरने को हुई तो गरुडत्र ने उसे अपनी चोंच में उठाकर बीच समुद्र में फेंक दिया, यह सोचकर कि यदि डाल (शाख) पृथ्वी पर गिर जाएगी तो पृथ्वी धसकर पाताल में चली जाएगी। इस प्रकार जिस जगह पर यह शाख (कश्मीरी लग) समुद्र में जा गिरी, वह जगह कालातर में 'लंका' कहलाई। विश्वकर्मा ने अपने अद्भुत कौशल से पूरे त्रिभुवन में इसे अगूठी में नग के समान बना दिया। गृह प्रवेश के समय कई अतिथि एकत्र हुए अपने पितामह पुलस्त्य के साथ रावण भी आए और लंका के वैभव ने उन्हें मोहित किया। गृह प्रवेश की पूजा के उपरांत जब शिव ने दक्षिणा स्वरूप सबसे कुछ मांगने का अनुरोध किया तो रावण ने अवसर जानकर शिव जी से लका ही मांग ली:
दोपुस तअम्य तावणन लंका मे मजमय
गछयम दरमस मे दिन्य, बोड दातअ छुख दय
दिचन लबअ सारिसूय कअरनस हबालह
तनय प्यठअ पानअ फेरान बालअ आलह ।
(पृ. 196)
तब रावण ने तुरत कहा- मैं लंका को मांगता हू यह मुझे धर्म के नाम पर मिल जानी चाहिए क्योंकि
आप ईश्वर रूप में सबसे बड़े दाता है। तब शिव ने चारों ओर पानी छिड़का और लंका को उसके हवाले कर दिया और तभी से शिव स्वयं पर्वत पर्वत घूमने लगे।
जटायु-प्रसंग भी रामावतारचरित में अपनी भौलिक उद्भावना के साथ वर्णित हुआ है। जटायु के पंख प्रहार जब रावण के लिए असहनीय हो उठते हैं तो वह इससे छुटकारा पाने की युक्ति पर विचार करता है। वह जटायु वध की युक्ति बताने के लिए सीता को विवश कर देता है। विवश होकर सीता को उसे जटायु वध का उपाय बताना पड़ता है:
वोनुन सीतायि वुन्य येतअ अब मारथ
नतअ हावुम अमिस निशि मोकल नअच वथ
अनिन सखती तमसि सीतायि दोन हाल
अमिस जानावारस किथ पाठ्य छुस काल
दोपुस तमि रथ मचिथ दिस पल च दारिथ
यि छनि व्यंगलिथ तअ जानि नअ पत लारिथ।
(पृ. 146 147)
तब रावण ने सीता से कहा, मैं तुझे अभी नहीं पर मार डालूंगा, अन्यथा इससे मुक्त होतने का कोई मार्ग बता। सीता पर उस रावण ने बहुत सख्ती की, जिससे सीता ने वह सारा हाल (तरीका) बताया जिससे उस पक्षी का काल आ सकता था। वह बोली, रक्त से सनु हुए बड़े-बड़े पत्थरों को इसके ऊपर फेंक दो उन्हें यह निगल जाएगा और इस तरह (भार स्वरूप) तुम्हारे पीछे नहीं पड़ेगा। जब तक यह रामचंद्र जी के दर्शन कर उन्हें मेरी खैर-खबर नहीं सुनाएगा, तब तक यह मरेगा नहीं।
वशिष्ठ द्वारा अमृत वर्षा
रामावतारचरित में कुछ ऐसे कथा प्रसंग भी है. जो तनिक भिन्न रूप में सयोजित किए गए हैं। उदाहरण के तौर पर रावण दरबार में अगद के स्थान पर हनुमान के पैर को असुर पूरा जोर लगाने पर भी उठा नहीं पाते (पृ 212) एक अन्य स्थान पर रावण युद्धनीति का प्रयोग कर सुग्रीव को अलग में एक खत लिखता है और अपने पक्ष में करना चाहता है। तर्क वह यह देता है कि क्या मालूम किसी दिन उसकी गति भी उसके भाई १ (बालि) जैसी हो जाए। वह भाई के वध का प्रतिशोध लेने के लिए सुग्रीव को उकसाता है और लंका 1 आने की दावत देता है, जिसे सुग्रीव ठुकरा देते हैं.
(पृ. 228)।
इसी प्रकार महिरावण / अहिरावण का राम और लक्ष्मण को उठाकर पाताल लोक ले जाना और बाद में हनुमान द्वारा उसे युद्ध में परास्त कर दोनों की रक्षा करना प्रसंग भी रामावतारचरित का एक रोचक प्रकरण है (पू. 259, 284) रामावतारचरित के लवकुश कांड में भी कुछ एस कथा प्रसंग हैं, जिनमें कवि प्रकाशराम की कतिपय मौलिक उद्भावनाओं का परिचय मिल जाता है। लव कुश द्वारा युद्ध में मारे गए 1 राम-लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के मुकुटों को देखकर सीता का विलाप करना, सीता जी के रुदन से द्रवित होकर वशिष्ठ जी द्वारा अमृत वर्षा कराना और सेना सहित रामादि का पुनर्जीवित हो उठना, वशिष्ठ के आग्रह पर सीता जी का अयोध्या जाना किंतु वहां राम द्वारा पुन अग्नि परीक्षा की मांग करने पर उसका भूमि प्रवेश करना आदि प्रसंग ऐसे ही है।
कश्मीर विद्वान डा. शशिशेखर तोषखानी के अनुसार रामावताररचित की सबसे बड़ी विशेषता है स्थानीय परिवेश की प्रधानता। अपने युग के सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक परिवेश का कृति पर इतना गहरा प्रभाव है कि उसका स्थानीय तत्वों के समावेश से पूरा कश्मीरीकरण हो गया है।
ये तत्व इनती प्रचुर मात्रा मे कृति में लक्षित हैं। र कि अनेक पात्रों के नाम भी कश्मीरी उच्चारण के J अनुरूप ही बना दिए गए हैं। जैसे जटायु यहा पर जटायन हैं, कैकेयी 'कीकी' इंद्रजीत इंद्रजेत है और संपति 'संपाठ' आदि। रहन-सहन, रीति-रिवाज, वेशभूषा आदि में स्थानीय परिवेश इतना अधिक बिबित है कि 19वीं शती के कश्मीर का जनजीवन साकार हो उठता है।
राम के वनगमन पर विलाप करते हुए दशरथ कश्मीर के परिचित सौंदर्य-स्थलों और तीर्थों में राम को ढूंढते हुए व्याकुल दिखाए गए हैं। (पृ 92 -93). लंका के अशोक वन में कवि ने गिन-गिनकर उन तमाम फूलों को दिखलाया है, जो कश्मीर की घाटी में अपनी रंग-छवि बिखेरते हैं। (पृ. 200 ). राम का विवाह भी कश्मीरी हिंदुओं में प्रचलित द्वार- पूजा, पुष्प-पूजा आदि रीतियों और रस्मों के अनुसार ही होता।
लवकुशचरित में सीता के पृथ्वी प्रवेश प्रसंग के अंतर्गत कश्मीरी रामायणकार प्रकाशराम ने भक्ति विहवल होकर शंकरपुर गाव (कवि के मूल निवास स्थान कुयंगाव-काजीगुड से लगभग पांच किलोमीटर की दूरी पर स्थित) में सीता जी का पृथ्वी प्रवेश दिखाया है। (पृ. 45) किवदती है कि यहां के रामकुड-चश्में के पास आज भी जब यह कहा जाता है-सीता देख राम जी आए हैं, तेरे राम जी आए हैं, तो चश्में के पानी में से बुलबुले उठते हैं। हो सकता है यह भावातिरेक जनित एक लोक-विश्वास हो लेकिन कश्मीरी कवि प्रकाशराम ने इस लोक-विश्वास को रामकथा के साथ आत्मीयतापूर्वक जोडकर अपनी जननी जन्मभूमि को देवभूमि का गौरव प्रदान किया है।
कुल मिलाकर रामावतारचरित कश्मीरी भाषा साहित्य में उपलब्ध रामकथा काव्य परंपरा का एक बहुमूल्य काव्यग्रंथ है, जिसमें कवि ने रामकथा को भाव-विभोर होकर गाया है। कवि की वर्णन शैली एवं कल्पना शक्ति इतनी प्रभावशाली एवं स्थानीय रगत से सराबोर है कि लगता है रामावतारचरित की समस्त घटनाएं अयोध्या, जनकपुरी, लंका आदि में न घटकर कश्मीर मंडल में ही घट रही हैं। रामावतारचरित की सबसे बड़ी विशेषता यही है और यही उसे विशिष्ट बनाती है। कश्मीरियत की अनूठी रंगत में सनी यह काव्यकृति संपूर्ण भारतीय रामकाव्य परंपरा में अपना विशेष स्थान रखती है।
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साभार:- डा. शिवन कृष्ण रैणा एंव 2012 अप्रैल, काशुर समाचार,