पदमश्री मोतीलाल क्यमू
बृजनाथ बेताव
प्रसिद्ध नाटककार श्री मोतीलाल क्यमू को इस वर्ष पदमश्री सम्मान से अलंकृत किया गया। श्री क्यमू ने न सिर्फ कश्मीर के नाटक को या लोकनाटक (भाड पॉथर) को बहुत योगदान दिया बल्कि कश्मीर के इस नाटक को पूरे भारत में पहुंचाया। मैं उनके योगदान को तीन अलग-अलग विषयों में बाटकर देखता हूँ।
सबसे पहला योगदान यह कि उन्होंने कश्मीर के परंपरागत लोकनाटक को आज के युग के मानव और इस मानव के आज के जीवन के साथ जोड़ दिया।
दूसरा योगदान यह है कि उन्होंने नाटक को केवल नाटक ही नहीं माना बल्कि नाटक और इतिहास का ऐसा समन्वय बनाया कि इतिहास का विद्यार्थी न होने वाला भी नाटक के माध्यम से इतिहास जान पाता है और नाटक का विद्यार्थी न होने वाला भी इतिहास के माध्यम से नाटक समझ पाता है।
तीसरा मुख्य योगदान यह है कि क्यमू साहब ने अपने सभी नाटक अपनी मातृभाषा कश्मीरी में लिखे और इस तरह इस भाषा को न केवल समृद्ध किया बल्कि इस भाषा के नाटक को भी समृद्ध बना दिया और कश्मीरी में नाटकों का एक भडार तैयार करके उन लोगों के लिए एक रास्ता बना दिया जो आने वाले समय में अपनी इस
भाषा कश्मीरी में नाटक के क्षेत्र में कुछ करना चाहते हों। कश्मीरी लोकनाटक भांड पॉथर कश्मीर के जीवन के हर विषय से जुड़ा हुआ है। इसमें कश्मीरी गीत, गाना-बजाना लिबास पहनावा, हमारी संस्कृति और जीवन के दूसरे सभी भिन्न भिन्न रंग मिलते है इसलिए दूसरे लोक इतिहासकारों की तरह क्यमू साहब का भी मानना है कि हमारे इस लोकनाटक में हमारे जीवन के अलग-अलग अग इतिहास ने सुरक्षित कर रखें हैं।
स्वयं क्यमू साहब ने अपने नाटक के लिए इसी विधि का प्रयोग किया। हालांकि उनका मानना है कि वे एक परंपरागत फोक नाटककार नहीं हैं, उन्होंने केवल इस विधि का इस्तेमाल करके इसमें नए-नए तजुर्बे किए और
अपनी बात लोगों तक पहुंचाई। इस प्रकार उन्हें मॉडर्न नाटककार या इस युग का नाटककार माना जा सकता है। क्यमू साहब के योगदान पर बात करते समय हमें दो बातों का विशेष ध्यान रखना पडेगा, एक कश्मीर में नाटक की परंपरा और दूसरा कश्मीर का लोकजीवन। ऐसा करने से ही हम उनके योगदान को भलीभांति समझ पाएगे। उनके योगदान को समझ पाना ही इस युग के महान नाटककार श्री मोतीलाल क्यमू के प्रति हमारा आभार होगा, जो हमारा कर्तव्य है क्योंकि उन्होंने अपने नाटक से हमारे नाटक को, हमारी भाषा को और हमारी संस्कृति को समृद्ध कर दिया है।
क्यमू साहब जिस नाटक से जुड़े वो कश्मीर का परपरागत नाटक है जो वास्तव में लिखित रूप में नहीं होता है बल्कि इसे खेलने वाले बांड कलाकार इसे अपने मन-मस्तिष्क में सुरक्षित कर लेते हैं। ऐसे कई नाटकों को श्री क्यमू के एक साथी रहे स्वर्गीय मोहम्मद सुबहान भगत ने अपनी पुस्तक में सुरक्षित कर दिया है।
क्यमू साहब की रुचि लोकतंत्र में हम पर हो रहे उस अत्याचार से भी है जिसका वर्णन हमें कश्मीर के फोक
नाटक भांड पॉवर में मिलता है।
क्यमू साहब ने भाडे पॉथरों जैसे नाटक नहीं लिखे परंतु उन्होंने अपना नाटक लिखने के लिए इसी शैली का प्रयोग किया अर्थात उनके नाटकों में भी बांड सुरनय और ढोल बजाते हैं उनके नाटकों का पात्र भी मसखरा है उनके नाटकों के पात्रों की वेशभूषा भी पॉथर के पात्रों जैसी है परंतु उनके नाटकों का केंद्र बिंदु केवल हास्यविनोद नहीं इतिहास भी है और साधारण जनजीवन भी और उनकी तकनीक आज के नाटक की तकनीक है।
क्यमू साहब अपने पहले ही नाटक 'नोव (तीन नाटकों का एक नाटक) से प्रसिद्ध हुए जो उन्होंने 1966 में लिखा। परंतु एक मंझे हुए नाटककार की ख्याति उन्हें 1972 में लिखे छाय (छाया) नाम के पहले बड़े ड्रामा से मिली। यह नाटक मानव की उस त्रासदी पर आधारित है।
जिसमें वो कभी-कभी आस्था खो बैठता है और आस्था खो बैठने का कारण यह है कि उसकी किसी में आस्था स्थिर हो जाती है। इस नाटक के बारे में मेरी क्यमू साहब से बात हुई और उन्होंने जो कुछ कहा वह आश्चर्यजनक है। बात दरअसल यह है कि सर्दियों के मौसम में कश्मीर जाने वाले लोग भलीभांति जानते हैं कि कश्मीर की घाटी में प्रवेश करने से पहले एक टनल आती है जिसे देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल के नाम पर जवाहर टनल का नाम दिया गया है। इस टनल को पार करते ही कश्मीर की घाटी आती है परंतु इस टनल तक पहुंचने से पहले करीब आधे-पौने घंटे की दुर्गम पहाड़ी यात्रा से जूझना पड़ता है और यदि बर्फ का मौसम हो तो रास्ता कई दिन तक बद रहता है।
ऐसे में जो लोग टनल के पहले बानिहाल नाम के गाव में रुक पाते हैं वो ईश्वर के प्रति आभार प्रकट करने लगते हैं कि वो बानिहाल में रुके कहीं रास्ते में रुक जाते तो बर्फ में फस कर कहीं पानी भी नसीब न होता। परंतु जब रास्त दिनोंदिन बंद रहता है तब ईश्वर के प्रति सरकार के प्रति, सड़क को खुला रखने का कार्य करने वाले लोगों के प्रति मन में घृणा सी पैदा होने लगती है। आस्था टूटने लगती है।
क्यमू साहब को ऐसे ही वातावरण में लोगों की आस्था बनती और बिगड़ती नजर आई तो उन्होंने इसे अपने नाटक का विषय बनाया।
ऐतिहासिक नाटकों के माध्यम से मुझे क्यमू साहब का जो योगदान नजर आ रहा है वो यह कि उन्होंने इतिहास को नाटक का ढांचा बनाकर आज के युग की त्रासदी को दर्शाया। इस तरह वो आज के मानव का न सिर्फ उसके दायें बांयें के वातावरण से साक्षात्कार कराते हैं जो एक लेखक का कर्म है बल्कि आज के मानव का परिचय उसके इतिहास से और उसके पूर्वजों से करा रहे है और यह बात हम सभी जानते और मानते हैं कि आज का इतिहास रचने वाला मानव यदि इतिहास पढे तो आने वाले समय का इतिहास बीते समय के इतिहास जैसा नहीं घटेगा।
क्यमू साहद केवल इतिहास से ही काम नहीं लेते बल्कि पौराणिक धार्मिक और लोककथाओं के माध्यम से भी अपनी बात बताते हैं। इस तरह के उनके नाटकों में हम अकॅनंदुन और भांड दुहाई जैसे नाटक देखते हैं। भाड दुहाई (हिंदी) नाटक के लिए क्यमू साहब को संगीत नाटक अकादमी का अवार्ड मिला है। यह नाटक भी 1998 में दिल्ली के रविंद्र भवन के मेघदूत थियेटर में दिखाया गया और बाद में इसके शो देश के भिन्न-भिन्न शहरों में हुए भांड दुहाई भी अकॅनन की लोककथा पर आधारित है। अकॅनदुन दरअसल कश्मीर की एक बहुत ही प्राचीन लोककथा है जिसे कश्मीरी भाषा में कई लोगों ने नाटक के रूप में और कई लोगों ने महाकाव्य के रूप में प्रस्तुत किया है। मैंने अपने जीवन में जो सबसे पहला नाटक देखा वह यही अकॅनदुन था और श्री क्यमू का कहना है कि उन्होंने ताराचंद बिस्मिल का लिखा अकॅनंदन ड्रामा पढ़ा है और दीनानाथ (मोदरेर) का लिखा अकॅनंदुन ड्रामा स्टेज पर देखा है।
कुछ वर्ष पूर्व जम्मू कश्मीर की सांस्कृतिक अकादमी ने अकॅनदुन प्रकाशित किया है और क्यमू साहब ने भी यह नाटक स्वयं छापा है। अकॅनदुन की कहानी यू तो आम कहानी है परंतु क्यमू साहब ने सात बहनों को सात नाम दिए है और वो हैं कामिनी, क्रोध, लोभ, मोह, मद, अहंकार और विलास । क्यमू साहब ने इस तरह इस कहानी के साथ आध्यात्म जोड दिया और इसका स्तर और ऊंचा कर दिया।
क्यमू साहब ने इस नाटक में एक और प्रयोग किया। उन्होंने नाटक के पहले भाग में एक फकीर का रोल करने वाले से यह कहलवाया कि अब मैं जाकर वापस साधू (जोगी) के वेश में आऊंगा, अर्थात् जो जोगी है वही फकीर है। यह कश्मीर शैवमत की देन है जो यह मानता है कि हम सब उसी परमात्मा परमेश्वर का अंश हैं और अज्ञान और माया के कारण ऐसा समझ नहीं पाते- ज्ञान बंध (शिव सूत्र) ।
क्यमू साहब से मैने इस संदर्भ में पूछा तो उन्होंने कहा कि यह मेरी अपनी वास्तविक सोच है। इस संदर्भ में उन्होंने यह भी कहा कि उन्होंने नाटक में कोई भी प्रसिद्ध गीत सम्मिलित न करके सारे गीत स्वयं ही लिखे।
हालांकि उन्होंने यह बात स्वीकारी कि उनके लिए स्वर्गीय दीनानाथ नादिम स्वर्गीय चमनलाल चमन और स्वर्गीय मखनलाल बेकस कभी-कभी नाटक के लिए छोटे मोटे गीत लिखा करते थे।
क्यमू साहब की चाबुकदस्ती इस बात से प्रमाणित हो जाती है कि उन्होंने इस कथा को नाटक के लिए आधार बनाया इसमें नया प्रयोग किया परंतु मूल कहानी के साथ नहीं छेड़ा, बल्कि नाटक को मच पर आकर्षित बनाने के लिए उसमें नई तकनीक का प्रयोग किया। वो ऐसे कि उन्होंने आरंभ में एक साधारण लोकनाटक (भाड पॉथर) प्रस्तुत किया जिसमें मसखरे पहले स्टेज पर आकर नाचने लगते हैं और आपस के संवाद से देखने वाले को यह आभास कराते हैं कि आगे कुछ ऐसा होने वाला है। उनके संवाद के बीच ही एक फकीर (जो ससार त्याग कर चुका हो) वहां उपस्थित हो जाता है और आगे की कहानी का पात्र बन जाता है।
क्यमू साहब ने इस बहुत पुरानी कथा के साथ आज के युग का संगीत जोड़ दिया।
मैंने उनसे पूछा कि इस पुरानी लोककथा के साथ आपने क्यों ईद मनाने से सबंधित प्रसिद्ध कश्मीरी गीत की धुन (ईद आणि रस रसे) जोड़ दी तो उनका सीधा-सा उत्तर था कि जब तक आप किसी चीज को लोगों के लिए आकर्षित नहीं बनाओगे वो समाज में सुरक्षित नहीं रहेगी। मैं उनसे सहमत हूँ क्योंकि आम जनजीवन से जुड़ने वाली चीजें ही संस्कृति और धरोहर बनकर समाज में सुरक्षित रहती हैं।
इसी तरह क्यमू साहब ने कश्मीरी की दूसरी प्रसिद्ध लोककथा हीमाल नोंगराय पर भी एक नाटक लिखा और उसे आज के युग के इंसान के साथ जोड़कर एक रंगकर्मी के रूप में अपना बहुमूल्य योगदान दिया ।
क्यमू साहब आज के इस त्रासदी भरे युग में जी रहे हैं इसलिए इतिहास और लोककथाओं में रूचि के साथ साथ उन पर आज के समाज का भी असर पड़ता है और इसी का परिणाम है भाड दुहाई जो मूलत अकॅनंदुन के इर्दगिर्द घूमने वाली कहानी है परंतु आतंकवाद से ग्रस्त कश्मीर में क्यमू साहब ने इसे इस तरह अपने नाटक का आधार बनाया कि उन्होंने आम लोगों को यह संदेश दिया कि वो अपने बच्चों अकॅनंदुनों को गलत रास्ते पर न जाने दें क्योंकि यही हमारे अकॅनंदन हमारा भविष्य है। मुझे क्यमू साहब के इस दृष्टिकोण में न केवल यथार्थ नजर आया बल्कि एक यथार्थवादी लेखक के मन की संवेदना और करुणा भी नजर आई जो अपने समाज को यूं तितर-बितर देख नहीं पा रहा है। परंतु दुखी है कि वो इसे रोक नहीं पा रहा। इसीलिए अपनी कलम का सहारा लेकर समाज में चेतना पैदा करके अपना कर्म कर रहा है। राजनीति के अपराधीकरण वाले हमारे युग में एक साधारण-सा लेखक और कर भी क्या सकता है?
अकॅनदुन के संदर्भ में इस नाटक में जब अकॅनंदुन को दोबारा जीवित करने वाले जोगी का पात्र निभाने वाले कलाकार का अपना बेटा आतंकवादियों की गोली से मारा जाता है तब उसकी मां विलास नहीं करती क्योंकि उसे मालूम है कि उसका पति अकॅनदुन की ही तरह अपने पुत्र को भी दोबारा जीवित करने में सक्षम है परंतु जब उसे नाटक और जीवन की वास्तविकता समझ में आती है तब वह मंच के परदे को फाड़ डालती है।
क्यमू साहब ने त्रासदी भरे इस नाटक का अंत इस कलाकार की पत्नी के धैर्य और साहस के प्रदर्शन से किया है और ऐसा करके उन्होंने जमाने को यह सूचना दी है कि भांड पॉथुर पर या इससे जुड़े कलाकार पर कितनी ही मुश्किलें आन पड़ें वो मिटने वाला नहीं है।
क्यमू साहब आज एक और नाटक लिख रहे हैं जो उनके कहने के अनुसार अब तक के लिखे उनके सभी नाटकों से बिलकुल अलग होगा इस तरह क्यमू साहब के नाटक लेखन के 37 वर्ष पूरे हो जाएंगे इन 37 दश में उन्होंने 20 से ज्यादा नाटक लिखे जो अपने आप में बहुत बड़ा योगदान है। क्यमू साहब ने यह नाटक कश्मीरी भाषा में लिखकर अपनी मातृभाशा को भी समृद्ध कर दिया और इस भाषा में नाटक की कमी को काफी हद तक पूरा किया।
क्यमू साहब का एक और बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने 1964 में स्वर्गीय मोहम्मद सुभान भगत और उनके साथियों के साथ भगत थियेटर अकिनगाम की स्थापना की (अकिनगाम ही मेरा जन्मस्थान है)। यहां आज भी भगत थियेटर नाटक का एक प्रमुख केंद्र है। इसी तरह उन्होंने घाटी के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में रंगमंडलियां और नाटक ग्रुप तैयार किए जिनमें पटन फलहालन का अर्निमाल थियेटर ग्रुप इस समय मेरे जहन में आ रहा है। क्यमू साहब के नाटकों के हजारों शो कश्मीर के भिन्न-भिन्न इलाकों में और देश के अलग-अलग शहरों में हुए। वुलर थियेटर कश्मीर ने उनके नाटक हीमाल नॉगराय के एक हजार से ज्यादा शो किए। इस सबके कारण आम जनमानस में नाटक के प्रति रूचि बढ़ी।
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साभार:- बृजनाथ बेताव एंव 2012 अप्रैल, काशुर समाचार,