घाट घाट का पानी

 घाट घाट का पानी


 घाट घाट का पानी

डा रतनलाल शान्त    

पिछले छः सौ साल के दौरान कश्मीर में हुए धर्मांतरण और धर्मस्थलों के बहाए जाने के बारे में जहां हमारे अधिकाश मुस्लिम सहकर्मी दोस्त आदि इनकार के मोड mode में रहते ये हमारे एक अंतरंग मुस्लिम लेखक मित्र का कथन इसी के लिए भी होता और अपराध स्वीकृति के मोड में भी हुआ करता था ये मुस्कराकर और हमारा गुस्सैल मूड हल्का करने की गर्ज से नम्रता भरे स्वर में कहा करते थे-अरे भई हमने (अर्थात हमारे पूर्वजों ने) तुम्हारे (तुम भट्टों के) पूजा स्थलों का अनादर बिलकुल नहीं किया बल्कि उन्हे (अपने पूजा स्थल (मतलब मस्जिद) बना दिया। सिर्फ इतना किया कि मूर्तियों को यहा से उलटा करके गाड़ दिया। पूजा स्थल पूजा स्थल ही बने रहे।

 

बात बहुत हद तक सच भी हो सकती है। बेडियार घाट से नाव द्वारा झेलम को सीधे पार करके पाट और गली से होते हुए हमें एक मस्जिद के बगल से निकलना पड़ता है तो सड़क पर पहुंच जाते है। इस मस्जिद की नींव 4 x 5 या उससे भी बड़ी (किसी प्राचीन मंदिर की नींव की) शिलाओं से बनी है। बाहर से यह सब दिखता है जाने उस पूजा स्थल की भीतरी दीवारों पर फूल पत्ती लता या कोई देव (मानव) आकृति खुदी या उमरी हुई होती है नहीं भी हो तब भी अंदाजा किया जा सकता है कि पत्थर हजार डेढ़ हजार साल पुराना होगा। इस प्रकार के बड़े-बड़े पत्थर इस समय तक उन टूटे-फूटे अवशेषों में मौजूद है या वहां भी देखने को मिलते हैं जहां अभी तक कोई मंदिर खड़ा है। मंदिर तोड़ने का काम विधिवत सिकदर (बुतशिकन) के द्वारा शुरू कराया गया था। हालांकि उससे पहले कुछ हिंदू राजाओं ने भी अपने के राजमहल तथा राजमंदिर तुड़वा में तलितादित्य के सारे भवन शंकरपाटन के मंदिर निर्माण में एक ऐतिहासिक तथ्य है। विरोधी राजाओं (वे भले ही हिंदू थे) दिए थे। शकरवर्मन द्वारा परिहासपुर तुड़वाकर आज के पट्टन में पत्थरों का उपयोग किया गया, जो हब्बाकदल से नीचे जैनाकदल या और नीचे नाव से जाने का संयोग जिन्हें सफर पर ले गया होगा उनकी नजरें जरूर नदी के किनारों पर बने कुछ ऐसे ऊंचे भवनों पर गई होंगी जिनकी कधी-कधी (कहीं तो 20-25 फुट नींदें उन्हें बाढ़ से बचाने के लिए खड़ी की गई है। नीवों में ऐसी ही बडी-बडी वर्ग या आयत आकार की शिलाए लगी है जो पुराने मंदिरों की ही हो सकती है। पुराने भवनों की भी हो सकती है, पर ये भवन कुछ गिने-चुने राजपरिवारों के सदस्यों अथवा राजपुरुषों (सरकारी अफसरों) के ही रहे हो सकते हैं जो काल की गति के साथ स्वयं गिर पड़े या गिराए गए। गिराए जाकर उनका उपयोग साधारण लोग कर नहीं सकते थे। या तो लोगों की सामूहिक सामुदायिक कोशिशों से उन्हें सामुदायिक सुविधाओं जैसे मस्जिद-स्नान घर-प्रार्थना भवन में लगवाया जा सकता था या किसी धनाढ्य व्यक्ति द्वारा धनशक्ति से व्यक्तिगत निर्माण में जो भी हो इस प्रकार का क्रिया-कलाप कश्मीर घाटी में विगत सदियों में कई जगह हुआ प्रमाण अभी तक मौजूद है। अस्तु

'विहार श्रीनगर में नदी पर स्थित थे यह उनके यार (और हिंदु मंदिर) बनने के बाद श्रद्धालुओं के लिए सुविधापूर्ण तथा लाभप्रद रहा होगा। हिंदु श्रद्धालुओं के लिए मंदिर प्रवेश से पहले (घर में ठाकुरद्वारे में जाने से पहले भी) नदी पर स्नान- सध्या करना आवश्यक था। नदी के घाट पर सुबह-सवेरे ही सध्या करते भट्टों का दिख जाना आम था। यो भी जल और जलस्रोत हिंदु धर्मपद्धति का एक सनातन अंग है जलस्रोत, किनारे वाले किसी मंदिर के बिना भी तीर्थ होता है। तीर्थ अर्थात जो तेरा दे पार करा दें. भव सागर के पार फिर यदि कोई मंदिर भी किनारे पर खड़ा है तो तीर्थस्थान की महिमा दोबाला हो जाती है। धर्मप्रधान हिंदू भारत में आस्था, श्रद्धा कर्मकांड परंपरा रीति, नियम अभ्यास सब कहीं न कहीं किसी जल, किसी नदी से जुड़ जाते हैं। इस सबके इतिहास भूगोल या किसी वैज्ञानिक तर्क में जाने का यह मौका नहीं। अभी केवल इतना कह सकते हैं कि जल से यह सका हमें आज जितना निवार्य तथा समस्यामूलक) लगता है वैसा पहले कभी नहीं था।

मस्जिद बन जाने के बाद भी पानी की जरूरत रही होगी पर वह केवल औपचारिक हाथ मुंह धोने की रही होगी जो नदी के उसी घाट पर पूरी की जा सकती थी। इसलिए घाट न सिर्फ बने रहे बल्कि उनका रख-रखाव भी निरंतर चलता रहा। यह और बात है कि वितस्ता में हर बाढ़ के बाद आये घाट मिट्टी-रेत से ढक-छिप जाते थे और यो उनका विस्तार सीमित होता जाता था। श्रद्धालु और नित्यकर्मी भट्ट लोग अपने लिए कुछ देर उकडू बैठ लेने की जगह खोद खरोंच कर निकाल लेते थे। यही कारण है कि मल्लयार से खरयार सोमयार शशयार पुरुषयार डलहसनयार होते हुए कालीमंदिर के घाट (खानकाह) और बटयार तक के घाट केवल आंशिक रूप से साफ और प्रयोग-योग्य थे। यो भी जैसे-जैसे वितस्ता में प्रदूषण बढ़ता गया और लोग इस बारे में सचेत होते गए घाट पर जाने और स्नान करने वालों की संख्या घटती गई। यहां तक कि शिवरात्रि का बटुक-घड़ा (नोट) नदी पर ही नरकर घर ले आने की अनिवार्य रीत धीरे-धीरे टूटती गई। 1990 से पहले कोई 20 वर्ष की स्थिति याद करके कहा जा सकता है कि यह परंपरा शहर में तकरीबन बदल चुकी थी। घरनिया घर के नल पर ही बटुक राजा को ले जाकर उसे अगले तीन दिन के लिए पानी से भर दिया करती थी।

श्रद्धा के मामले में तर्क या प्रमाण की न मांग होती है न जरूरत पड़ती है। अधिकाश मामलों में पौराणिक कहानिया प्रश्न या जिज्ञासा के उत्तर रूप में बताई जाती है। वास्तविकता यह है कि भारतीय जनमानस में क्या कहीं भी किसी भी संप्रदाय धर्म में इसी प्रकार की आस्था प्रणाली है। सबकी अपनी-अपनी कहानिया हैं स्वर्ग से आई हुई सरिता अर्थात गंगा के बारे में बोलते हमारे पुराणकार थकते नहीं। इस नदी के उद्गम से लेकर समुद्र अवगाहन तक जगह-जगह इससे जुड़े आरण्योन हैं। तटों पर बने तीर्थों में जाकर वहां इस नदी में डुबकी लगाने से "अनेक जन्मों के पाप धुल जाते हैं, वरना पानी तो एक ही है गंगोत्री से गंगासागर तक वितस्ता का पानी भी बेरीनाग या व्यथु चोतुर से वुल्लर तक एक ही है पर इस पानी पर बने तीर्थों का जगह-जगह अलग-अलग बखान है। हर तीर्थ में स्नान करने का अलग महत्व है। इक्कीसवीं सदी की अंतिम दहाई तक हमारा जीवित संपर्क इन पानियों के साथ था पर वितस्ता महात्म्य नामक पुराण और उसमें उल्लिखित कहानियों पर हमारा विश्वास कम होते-होते करीब समाप्त हो चुका था। अपनी जिंदगी में मैंने सिर्फ इतना सुना और जाना था कि सोमावती अमावस्या (सुमरी मावस) के दिन हब्बाकदल के निकट सोमवार मंदिर के घाट पर नहाने से बहुत पुण्य लाभ होता है। उस दिन (चाहे वह वर्ष में कितनी भी बार आए उस घाट पर मुंह अधेरे ही भट्टिनियों का मेला लगता मैंने कई बार देखा है। पुरुष तो सूरज चढ़ने के बाद भी नहा लेते थे। इसी प्रकार गणपतयार पुरुषयार रघुनाथ मंदिर काली घाट और भट्टयार (आलीकदल) के घाटों पर कुछ निश्चित दिनों नहाने और पुण्य पाने की कहानिया मेरे अवचेतन में मौजूद होंगी। पानी एक है. घाट बहुत फिर भी घाट घाट का पानी पिए हुए अनुभवी व्यक्ति का हवाला आपने भी दिया या सुना होगा. बातचीत में व्यक्ति अनुभवी भी हो सकता है. शातिर या चतुर भी ऐसा भी जो हमें घाट घाट घुमा के लाए और हमको प्यासा ही रखे। जो भी हमारी नदी के घाटों की बहुत कहानिया हैं। ये कहानिया अब हम न सुनेंगे न सुनाएंगे। न वह नदी रही न कहानियां सिर्फ उन्हें किताब में या स्मृति में संजो के रखा जा सकता है।

 

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साभार:- डा. रतनलाल शान्त एंव 2012 अप्रैल, काशुर समाचार,