हमारे ईश्वर को तैरना नहीं आता
महाराज कृष्ण संतोषी
मैं -से- यह मानता हूं कि जिंदगी में सब को कम- -कम ना और साइकिल चलाना लेना चाहिए। मेरे इस विश्वास का क्या आधार है, मैं स्वयं नहीं जानता। शायद इस से आदमी में आत्मविश्वास पैदा होता हो।
मेरे दोनों बच्चे तैरना और साइकिल चलाना जानते हैं, तैरना उन्होंने कश्मीर में ही सीखा था। लेकिन साइकिल चलाना विस्थापित होकर जम्मू में कश्मीर की गोली हरियाली में साइकिल चलाने का अपना ही आनंद होता था। सड़कें ऊबड़-खाबड़ होकर भी उतनी निर्दयी न थीं कि पैडल मारते जाइए और कुछ हसीन भी सोचते जाइए या सामने आती किसान लड़कियों को देख कर गुनगुनाना ही शुरू कर दीजिए। तब सारा सौंदर्य तुम्हारे भीतर तरंगित हो उठेगा। लड़कियां शहरी कामुकता से तुम्हें नहीं देखेंगी। उनकी चंचल मुस्कानें तुम्हें सुरूर से भर देंगी और आसपास सारा वातावरण उनकी उपस्थिति से महक उठेगा।
कश्मीर की इस मनमोहक आबोहवा में कभी ऐसा भी कुछ हो जाता कि सारा माहौल तनावग्रस्त हो जाता। परस्पर सद्भाव छिन्न-भिन्न हो जाता और आंखों में अविश्वास उत्पन्न हो जाता। अपने करीबी परिचितों और दोस्तों तक में जुनून की लहरें उठने लगतीं। एक बार माजिद से मैंनें कहा भी था - " अकेले में तुम कश्मीरी मुसलमान बहुत अच्छे होते हों, लेकिन..
"लेकिन क्या ?" उस ने अधीर होकर पूछा था। भीड़ में तुम वहशी बन जाते हो। मैंने कहा था। वह यह
सुनकर तिलमिला उठा था। उस दिन माजिद जितनी भी देर मेरे साथ था, वह कुछ भी नहीं बोला। उसकी आंखों में मेरे प्रति तिरस्कार की एक भावना थी।
माजिद और मैं अक्सर कश्मीर के इतिहास और साहित्य- संस्कृति को लेकर चर्चा करते। हमारी यह चर्चा कभी- कभी जातिगत भी होती, लेकिन इन सब के बावजूद हमारी मित्रता में कोई फर्क नहीं आता। उस दिन बातों ही बातों में मैंने माजिद से कहा-
"तुम भी कभी हिंदु थे, 'तुम' से मेरा मतलब उसके पूर्वजों से था। उस ने मूक सहमति में सर हिला दिया था।" "फिर आज हम और तुम अलग-अलग कैसे हुए?"
मैंने फिर छेड़ा। 'अलग-अलग तो हुए ही हैं", उस के स्वर में दृढ़ता थी। "कैसे?" मैंने पूछा।
"हम ने दूसरा धर्म जो अपना लिया है। "
" धर्म से क्या हमारा इतिहास भी अलग हुआ है?"
'अलग तो नहीं हुआ है, लेकिन हम से कश्मीर का नया इतिहास शुरू हुआ है।"
"लूटने का मंदिर तोड़ने का या फिर जबरन धर्म- परिवर्तन का इतिहास", मेरे स्वर में आक्रामकता थी।
"यही तुम पंडितों को बीमारी है। हमेशा इस्लाम का काला पक्ष प्रस्तुत करते हो। कभी इस्लाम को समझने की कोशिश भी करो"। मैं संभल गया। मैंने सचेत होकर कहा, "ऐसा नहीं है, मेरे दोस्त ! इस्लाम के प्रति हमारे मन में बहुत सम्मान है, पर ऐसा है कि हम वह कहावत कभी नहीं "
भूले हैं.... 'कौन-सी कहावत?" उसके स्वर में अधीरता थी।
"मुस्लिम शासन में हिंदुओं के ग्यारह घर बचे रहने की कहावत......"
"तुम साले कश्मीरी पंडित, शुरू से ही भगोड़े थे-डरपोक थे, "
"मैं उसके 'डरपोक' शब्द पर हंसा हंसते हुए कहना नहीं भूला कि पंडित से दोस्ती अजगर से दोस्ती किचन से हमारी तरफ मछली पकने की मिर्चीयुक्त भाप आ रही थी। उस भाप के कारण मैं अपने भीतर एक विचित्र स्वाद महसूस कर रहा था।
"लिंदर की मछली है न?" कमरे में बजते सूफियाना संगीत के बीच मैंने कहा।
"हां। कादिर ने पकड़ी है।" "कभी हमारे लिए भी कुछ..." उसने मुझे वाक्य पूरा करने नहीं दिया।
"लिदर सिर्फ हम मुसलमानों की नदी नहीं है, " उसके स्वर में शरारत थी। "क्या मतलब?" मेरे स्वर में नाटकीयता थी।
"तुम खुद भी कभी नदी के ठंडे पानी में उतरा करो। " "तुम मुसलमान किसलिए हो," मैंने छेड़ने की नीयत
से कहा। "वे दिन गए, जब हम तुम्हारे घोड़े की लगाम पकड़े होते और तुम हमारे कंधे पर अपने पांव रखकर घोड़े से नीचे उतरते।"
"हां, सचमुच ही वे दिन नहीं रहे, अब, " मैंने झूठा अफसोस प्रकट करते हुए कहा।
अप्पा दूसरे कमरे से नमाज पढ़ कर आई थी, आते ही माजिद से कहा- "पंडित जू को जाने मृत देना। मैं उसके हिस्से का भी भात पका चुकी हूं।" यह कहकर वह गोशाला में गई। माजिद ने हसरतभरी निगाहों से मेरी तरफ देखा और कहा, "क्या खयाल है?" मैं समझ गया।
"नहीं।"
'आधा-आधा पेग।"
"इस समय कहां से मिलेगा?"
"मेरे पास कोटा है।"
हम दोनों ने विहस्की के दो-दो पेग पिए। खाना खाया। मछली और मूली का मेल लाजवाब था। आंसू छलक आने तक हमने उनका मिर्चीयुक्त स्वाद लिया। रात काफी हो चली थी। माजिद बाहर सड़क तक मुझे छोड़ने आया। आंगन से बाहर निकलते ही उसने गुनगुनाना शुरू किया-
क्यों हंगामा है बरपा थोड़ी-सी जो पी है, डाका तो नहीं डाला है, चोरी तो नहीं की है.
माजिद गुलाम अली का फैन था। मैंने अक्सर उसे उसकी गजलें गुनगुनाते सुना है।
हमारे गांव में हिंदुओं और मुसलमानों की आबादी लगभग बराबर थी। कश्मीर में आबादी का यह तनामुब और कहाँ नहीं था। इसलिए और जगहों की अपेक्षा यहां हिंदुओं में असुरक्षा की भावना कम थी। हमारे गांव जो कोई भी अतिथि बनकर कुछेक दिनों के लिए आता, तो उदास मन ही वापस लौटता। दो-एक दिन में ही वह यहां के लोगों के साथ घुलमिल जाता। उसे यह अनुभव ही नहीं होता था कि वह कोई अजनबी है।
मुझे इस समय अपने गांव की रामलीला याद आ रही है। यह उन दिनों की बात है, जब गांव में दूरदर्शन का प्रवेश नहीं हुआ था और रामानंद सागर का सीरियल नहीं आया था। रामलीला वाले दिन कश्मीर में किसानों के खुशहाली वाले दिन होते हैं। फसल की कटाई हो चुकी होती है। कोठारों में धान भरा गया होता है। आबोहवा में ठंडापन आ जाता है और लिहाफ ओढ़नेवाली रातों का आगमन हो चुका होता है। रामलीला के पहले दिन से ही मुस्लिम घरों की स्त्रियां, बच्चे, युवक-युवतियां आना शुरू हो जाते हैं। रोज उनकी संख्या बढ़ती ही जाती है। यह संख्या राम-रावण युद्ध तक आशातीत बढ़ जाती। वानर और राक्षसी मुखौटे पहने कलाकार अपने अभिनय से लोगों का भरपूर मनोरंजन करते। उन दिनों गांव का मनोरंजन ऐसी ही लीलाओं से होता था, मैं समझता था, ये मुस्लिम परिवार केवल मनोरंजन के उद्देश्य से ही रामलीला देखने आते होंगे, जो सोचना स्वाभाविक भी था। बाद में मुझे यह देखकर सुखद आश्चर्य होने लगा कि वे रामलीला मंच से अपनी मन्नत मांगने की घोषणा करवाते और पूरी होने पर नियाज देने का वायदा भी पूरा करते। माइक थामे पृथ्वी नाथ शेर एक पेशेवर उद्घोषक की तरह ऐसे मुसलमान भाइयों का नाम लेते और लोग तालियां बजाते। दूरदर्शन के प्रवेश ने गांव की रामलीला को ही गायब कर दिया। रामलीला समिति के सदस्यों ने अपने छोटे-छोटे ग्रुप बनाकर श्रीनगर दूरदर्शन पर स्वतंत्र कार्यक्रम देने शुरू किए। अब जब रामलीला के दिन आते, तो गांव में वह पहले जैसी हलचल नहीं होती थी। एक दिन मैंने माजिद से कहा भी कितने अच्छे थे वे दिन।"
"सचमुच, कितने अच्छे थे... चिनारों की खुली छांह में रामलीला देखने का अपना ही आनंद था, " वह यह कहकर उदास हुआ था।
उस दिन मैंने माजीद को कितना चौंका दिया था। "हम में परस्पर कितना प्यार है, "मैंने कहा था।
"हां, है" माजिद ने हामी भरी थी।
"मगर तुम अपना गुस्सा हमारे ईश्वर पर क्यों उतारते हो।"
"मैं समझा नहीं?"
"मैं समझाता हूँ। जब कभी कश्मीर में राजनीतिक तनाव वाली बात होती है, तुम हमारे मंदिरों पर अपना गुस्सा निकालते हो, उन्हें जलाते हो, यहां तक कि हमारे देवी-देवताओं को घसीट कर उन्हें दरिया में फेंकते हो...."
माजिद सोच में पड़ गया था। उसके पास कोई जवाब नहीं था। कश्मीर में हिंदुओं की आबादी नगण्य रही है। कभी भी उनकी किसी प्रतिक्रिया का सवाल ही नहीं था। शताब्दियों के उत्पीड़न ने हमें निकम्मेपन की सीमा तक कायर बना दिया है। यहां तक कि हमारी कायरता पर कश्मीर में कई चुटकुले प्रचलित हैं। कहते हैं, एक बार पठान हुकूमत में एक पठान ने किसी हिंदू स्त्री से उस के पति की उपस्थिति में ही बलात्कार किया। बलात्कार से पूर्व उसने पंडित के चारों ओर तलवार से एक दायरा खींच लिया था और पंडित जू से बाहर आने के लिए मना किया था नहीं तो....
पठान के जाने के बाद पति अपनी पत्नी से बोला था-"पापी पठान कहीं का। कहता था, दायरे से बाहर मत निकलना। मैं तीन बार दायरे से बाहर निकला था...'
मैंने इस चुटकले पर केवल मुसलमानों को ही नहीं, बल्कि स्वयं पंडितों को भी ठहाका लगाते देखा है।
माजिद ने हमारे इतिहास को पढ़ा था। वह हमारी जाति या संहार की कई कथाएं जानता था। धर्म परिवर्तन के नाम पर हुए अत्याचार से कैसे इन्कार कर सकता था। मैं उसे चिढ़ाने के लिए सिकंदर बुतशिकन का नाम लेता, तो वह भी कहता- जैनुलाब्दीन भी तो मुसलमान था। "हां, था, "मैं सहमति प्रकट करता।
"उसने हिंदुओं को कश्मीर में पुनः नहीं बसाया?"
"हां, बसाया।"
"फिर?" उसके स्वर में गर्व होता।
"उसने हमें जरूर बसाया, लेकिन तुम्हारे हित के लिए..." "हमारे हित के लिए?" वह विस्मित होकर पूछने लगता।
"यदि कश्मीर में हिंदु दोबारा नहीं बसते, तो हंसते हो, कश्मीर में क्या होता?"
"क्या होता?"
"यहां शताब्दियों से शिया-सुन्नी फसाद हो रहे होते हजारों-लाखों में लोग मर गए होते...." उसे मेरे इस इतिहास- बोध से दुख पहुंचता। वह गुस्सैल आंखों से मेरी तरफ देखता । मैं उसके गुस्से की परवाह किए बगैर कहता " जब तक कश्मीर में हिंदू रहेंगे, कश्मीर में शिया-सुन्नी झगड़े कभी नहीं हो सकते..... गुस्सा निकालने के लिए हम हिंदू जो हैं..." वह आगे कुछ और सुनने से इन्कार करता। उसके बाद कई-कई दिन हम एक-दूसरे का मुंह तक नहीं देखते। एक दिन अचानक वह मेरे घर आता। आंगन में ही वह आवाज लगाता, “कहां है जनसंगी?" मैं उसकी आवाज सुनकर हंसता। मां से हालचाल पूछकर वह मेरे कमरे में आता। कमरे में दाखिल होते ही मैं उस पर झूठा गुस्सा निकालता - " मुझे जनसंगी कहकर तुम्हें शर्म नहीं आती। मुझे कम्यूनिस्ट कहने में तुम्हें पीड़ा होती है?" वह मेरे गाल पर हल्की-सी चपत लगाते हुए कहता, "पंडित सिर्फ अवसरवादी होता है।"
" और तुम मुसलमान?" मैं वापस चोट करता।
" सिर्फ मसखरे। हमने राजनीति में भी मसखरे पैदा किए हैं।" वह मजाकिया अंदाज में कहता। "ऐसा मत बोल, कुफ्र लगेगा" वह डरने का अभिनय करता। हम दोनों हंसने लगते। दरिया में देवी-देवताओं की मूर्तियां फेंकवा दिए जाने पर वह हमेशा चुप रहता। मैं उसकी चालाकी समझ लेता। सन् 1986 के अनंतनाग के दंगों के बाद मैंने उसे एक दिन कहा था- " अब मुझे तुमसे वाकई डर लगने लगया है।" "क्यों?" उस के स्वर में उत्सुकता थी।
"तुम मुसलमान हो न।"
"पहले नहीं था क्या?"
"हां, थे।"
"तो?"
इस बार मैंने अपनी आंखों में तुम्हारे भीतर के जुनून को देखा है। वह हंसा और प्रत्युत्तर में केवल इतना कहा- "डरना
तुम पंडितों का जन्म सिद्ध अधिकार है।" " और लूट-मार करना तुम्हारा..." मेरी इस बात से वह
काफी आहत हुआ था और मुझसे कई दिन नहीं मिला था। उन्हीं दिनों हमारे गांव में पुरातत्व विभाग की तरफ से खुदाई कार्य चल रहा था। एक दिन खुदाई के दौरान एक विशाल मूर्ति मिलने की खबर फैली। मुसलमान मजदूरों ने एहतियात के साथ इसे मिट्टी से बाहर निकाला। यह भगवान शंकर की खंडित मूर्ति थी। यह खबर फैलते ही गांव के बहुत से लोग देखने आए। शताब्दियों की धूल और मिट्टी ओढ़े होने पर भी वह मूर्ति अपनी भव्यता और दिव्यता में अनुपम थी। गांव के बुजुर्ग लोगों ने इसे अपने अधिकार में लेना चाहा, लेकिन पुरातत्व विभाग के अधिकारी इसे श्रीनगर के संग्रहालय में भेजने का फैसला ले चुके थे। इस फैसले से हिंदुओं को काफी निराशा हुई थी। गांव के मुस्लिम संप्रदाय में इस मूर्ति को लेकर तनाव-सा उत्पन्न हुआ था। कुछ लोग इसे इस्लाम के लिए बदशगुन मानने लगे थे, कुछ को इतिहास का अवांछित बोध हुआ था और कई इस मूर्ति को लेकर विचित्र मनःस्थिति में प्रतीत हो रहे थे
उस शाम मैं माजिद के घर गया। मैं उससे मूर्ति के विषय में चर्चा करना चाहता था। नमकीन तथा चाय की चुस्कियां लेते हुए मैंने बात छेड़ दी- "मूर्ति देखी ?"
"हां, देखी।"
"कैसी लगी?"
"खूबसूरत"
"जब यह बनी होगी, तो कारीगर ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि इसका यह हश्र होगा, " "कोई भी कारीगर अपनी मूर्ति का मुस्तकबिल नहीं (जानता....
" सच। लेकिन जिन्होंने इस मूर्ति को तोड़ा होगा, वे कितने वहशी रहे होंगे।" माजिद चुप रहा था। वह हमेशा अपना बचाव खामोश रह कर ही करता था।
मैं माजिद की चचेरी बहन से कैसे प्यार करने लगा था, मुझे खुद नहीं पता। हमारी यह मोहब्बत आंखों में अंकुरित होकर दिल में खिल गई थी, लेकिन अभी हमारा प्यार दूसरों तक प्रकट नहीं हुआ था। डर था कि भेद खुल गया, तो हंगामा होगा। कश्मीर में जब कोई मुसलमान हिंदू युवती से प्यार करता, तो काफी मुखरित होता, पर हिंदू लड़के को छिपकर मुसलमान लड़की से प्यार करना पड़ता था।
एक दिन मैंने मजाक में माजिद से अपनी यह इच्छा प्रकट की कि मैं किसी मुसलमान लड़की से विवाह करना चाहता हूं। वह बोला-"क्यों नहीं, लेकिन एक शर्त । " "कौन-सी?" मैंने उत्सुकता प्रकट की।
"तुम्हें मुसलमान बनना होगा," उसने गंभीर होकर कहा था। "विवाह और मजहब का क्या रिश्ता है?" मैंने प्रतिरोध के स्वर में कहा था।
"रिश्ता हो या नहीं, पर कोई भी सच्चा मुसलमान तुम्हें इसी शर्त पर अपनी लड़की ब्याह देगा।" 'लेकिन यदि बेटी पहले से ही किसी काफिर को दिल दे बैठी हो, तब?"
" उसे इसकी सजा मिलेगी।"
"मगर क्या तुम भी किसी ऐसी सजा की पैरवी करोगे?"
मैंने पूछा था। "हां, मैं क्या मुसलमान नहीं हूं, " वह यह कहकर हंसा था, मगर उसकी हंसी से अप्रभावित मैं मन-ही-मन निः शब्द चिल्ला उठा कि जाओ और अपनी चचेरी बहन को सजा दे दो।
माजिद के चरित्र में एक अनोखा विरोधाभास था। वह कश्मीरी पंडितों का बहुत सम्मान करता था। उनकी बुद्धिमता से बहुत प्रभावित था वह। उनके रहन-सहन, घर-गृहस्थी और सौंदर्यबोध से ईर्ष्या की हद तक प्यार करता था, मगर वह उनका विरोध भी कम नहीं करता था। वह उन्हें चापलूस, मौकापरस्त और स्वार्थी मानता था, उनकी अत्यधिक भारतीयता पर उनसे घृणा करता था। हालांकि स्वयं पाकिस्तान नवाज भी नहीं था। मैं भी उसके इस छद्मविहीन व्यवहार का कायल था। तभी उसकी कही बातों से तनिक भी आहत नहीं होता। हमारे बीच सिर्फ आहत दिखाने का झूठा अभिनय होता।
देखा-देखी में हमारे गांव की मस्जिदों में लाउडस्पीकर गरजने लगे थे। पंडितों ने पहले से ही लाउडस्पीकर पर भजन के कैसेट बजाने शुरू किए थे। छुट्टी के दिन तो मंदिर में पूरे दिन कैसेट बजते इस देखा-देखी में गांव के शांत वातावरण में ध्वनि-प्रदूषण की समस्या जैसी बन गई थी। कोई भी इस बात को किसी हद तक संप्रेषित नहीं कर पा रहा था कि प्रार्थना जितनी खामोशी से की जाए, उतनी ही असरदार होती है। मेरे पिताजी को जब यह बात मालूम हुई, तो उन्होंने मुझे इस लाउडस्पीकर विरोधी अभियान के लिए लताड़ा और चेतावनी दी कि अगर मैं अपनी नास्तिकता से बाज नहीं आया, तो घर छोड़ कर कहीं भी दफा हो जाऊं - रूस या चीन कहीं भी (उन दिनों कश्मीर में कम्यूनिस्टों को इसी तरह के ताने सुनने पड़ते थे। मैंने माजिद से भी पता किया, तो उन्होंने बताया कि अब्बा के सामने मुंह खोलने की उनकी हिम्मत नहीं हुई। उन के जमायते इस्लामी में शामिल होने से पहले ही अब्बा उनसे खफा थे। पीर मुल्लाओं के खिलाफ उसकी बातों ने उसे पहले से ही मेरे प्रति कटु बना रखा था। इस बार लाउडस्पीकर के बारे में कुछ कहने पर पता नहीं, वह क्रोध में क्या कर जाते।
माजिद की चचेरी बहन से मेरा प्यार शुक्ल पक्ष के चंद्रमा की तरह बढ़ रहा था। उन्हीं दिनों गांव में एक ऐसी घटना हुई, जिसने सारी पंडित बिरादरी के मुख से जैसे चमक ही गायब कर दी हो। हुआ यह कि पंडित निरंजन नाथ कौल की बेटी सुशीला गांव के एक वगे मुसलमान घर के बेटे के साथ भाग गई। वह वगे परिवार काफी संपन्न था। लड़की के पिता का यह आरोप था कि वगे परिवार ने धन के प्रलोभन में उसकी बेटी को बरगला दिया था। वह यह मानने को तैयार ही नहीं था कि मुसलमान लड़के के साथ उसकी बेटी का चक्कर था। इस घटना से पंडितों में काफी क्षोभ पैदा हुआ। आपस में सलाह-मशविरा कर पंडित बुजुर्गों ने यह फैसला लिया कि गांव के मुसलमान बुजुर्गों के पास जाकर आपसी सुलह-सफाई करके लड़की को वापस अपने बाप को सौंप दी जाए, लेकिन मुस्लिम बुजुर्गों ने इस मामले में हस्तक्षेप करने से इन्कार कर दिया। मामले को डिप्टी कमिश्नर के पास ले जाने का अंतिम निर्णय लिया गया। मेरे पिता भी डेप्यूटेशन के साथ जाने के लिए तैयार हो गए। मैंने पिताजी को उस डेप्यूटेशन के साथ जाने से रोकने की कोशिश की- "क्यों?" उसके स्वर में गुस्सा था।
"पिताजी, उन दोनों में बहुत प्यार था..... "तो क्या लड़की को म्लेछों के घर में ब्याह दें," पिताजी ने मेरी बात बीच में ही काटते हुए कहा। "पिताजी, अब ऐसी बातें सोचते हैं आप।"
"जा, दफा हो जा...." उन्होंने मेरी बात सुनने से ही इन्कार कर दिया आगे बात बढ़ाना व्यर्थ था। मैं सुशीला के साहस को सराह रहा था मन ही मन ।
पतझर कश्मीर का सुनहरा मौसम होता है। इस मौसम में चिनार अपने पत्तो पर अंगारों की सी सुख धारण करते हैं। दूर से देखने पर ऐसा मालूम होता है, जैसे इन पत्ती पर आग ठहरी हुई हो। मैं इस मौसम से बेहद आकर्षित रहा हूँ। पतझर की उस एक शाम सारा (माजिद की चचेरी बहन का नाम सारा ही था) मुझे अपने खेते के पास वाले चिनार के पास मिली। मैंने सारा की काली काली आंखों में देखा तो उसमें उदासी की उभरती हुई रेखा दिखाई दी। मुझे लगा कि जैसे वह किसी दुविधा में फंस गई हो। "क्या बात है?" मैंने पूछा।
वह कुछ देर चुप रही। फिर धीरे-धीरे बोलने लगी...." अब्बा मेरे विवाह की बात चला रहे हैं। शायद कुछेक दिनों में मेरी सगाई भी हो।"
" तो तुम्हें खुश हो जाना चाहिए," मैंने मजाक के स्वर में कहा।
"तुम्हें तो हर वक्त मजाक ही सूझता है, इधर मेरी जान पर बन आई है...... मैं गंभीर हो गया था।
"हमारे प्यार का क्या होगा?" उसने चिंता के स्वर मे कहा था। मैं चुप रहा था। मुझे चुप देखकर वह भी कुछ देर चुप रही थी, लेकिन थोड़ी-सी अवांछित चुप्पी के बाद उसने मुझे यह कह कर चौका ही दिया था- चलो, भाग चलें" यह सुन कर मेरे तो जैसे होश ही उड़ गए थे। मेरे मुख से तो सिर्फ इतना निकला था, "क्या, भाग चलें !"
"हां, वगे भी तो सुशीला को भगा कर ले गया।" "उसकी बात कुछ और है," मैंने धीमे स्वर में कहा था। " और है?" वह जैसे नींद से जाग गई थी।
"हम भागेंगे, तो तुम्हारे मुसलमान भाई मेरे घर वालों को छोड़ देंगे?"
"तुम्हें वहम है— कुछ नहीं होगा।" "नहीं," मेरे स्वर में दृढ़ता थी।
"तुम कायर हो, डरपोक हो....." घृणा में धीमा चीखते हुए वह अपने घर लौट गई थी। वह हमारे प्यार का अंत था। उसके बाद मैं जब-जब माजिद के घर गया, वह मुझे देखते ही अपनी भौंहें चढ़ा लेती। एक दिन उसने मेरे साथ ऐसा बदला लिया कि मुझे अपनी मर्दानगी पर शर्म महसूस हुई। मैंने उसे पहले कभी माजिद के घर में नहीं देखा था। इसका एक कारण यह था कि उनके और माजिद के परिवार वालों में कोई पुराना झगड़ा था। अब जब मैं वहां गया तो, ऐसा लग रहा था कि वह पुराना झगड़ा मिट गया है। रिश्ता फिर से सजीव हो उठा था। इस बार वह ही हमारे पास चाय का समावार लेकर आई थी। कमरे में दाखिल होते ही उसने मेरी तरफ संबोधित होकर कहा था, "आदाब भाई जान।"
मैं यह अभिवादन सुनकर भीतर ही भीतर तिलमिला उठा था। इस नए अभिवादन से सारा ने एकमुश्त में ही अपना सारा बदला ले लिया था। ये हमारे विस्थापन से पूर्व के दिन साबित हुए।
निरंजन नाथ कौल की बेटी सुशीला का बाजाप्रा निकाह हुआ। इसने इस्लाम कबूल किया। सुशीला से उसका नाम हबीबा रखा गया। इस घटना से निरंजन नाथ कौल इस कदर टूट गए थे कि उन्होंने सस्ते में अपनी जायदाद बेच कर हमेशा-हमेशा के लिए कश्मीर छोड़ दिया।
परिस्थितियों में अकस्मात एक बदलाव आने लगा था। मस्जिदों में अब देर तक वाजखानी होती रहती थी, जो धार्मिक कम और सियासी ज्यादा था। फिर भी वातावरण में सहअस्तित्व की भावना में कोई अंतर नहीं आया था। हालांकि प्रेम नाथ भट्ट और टिक्कालाल टपलू को अपने घर के बिल्कुल निकट गोली से मार दिया गया था। फिर भी ऐसा लगता था कि बात आगे नहीं बढ़ेगी। भारतीय सैनिकों की मौजूदगी का भी भरोसा था। लेकिन जनवरी की रात सारे विश्वास टूट गए। उस रात आजादी और निजामे मुस्तफा के गगनचीर नारों ने पंडित घरों की सांकले तक तुड़ा दी। घरों के भीतर दुबके लोग अपनी मौत की जैसे प्रतीक्षा कर रहे थे मस्जिदों से लाउडस्पीकरों के गरजने का सामूहिक कोलाहल था। 'काफिरो, यह कश्मीर छोड़ दो' के नारों से स्पष्ट था कि अब हमारे अच्छे दिन नहीं रहे। इसी रात हमारे निर्वासन का मुहूर्त निकला। इसी रात के बाद लोग जान बचाने के लिए जम्मू भाग गए। फरवरी मार्च और अप्रैल तक तीन चौथाई परिवार जम्मू में शरणार्थी बन गए थे।
हमारा जाना अभी स्थगित था। गांव में अभी कुछ पंडित परिवार थे। मैं डर रहा था कि कहीं कम्यूनिस्ट होने के कारण जिहाद की भेंट न चढ़ जाऊं। मेरे कारण ही मेरे परिवार को भी विस्थापित होना पड़ा।
जाने से पूर्व में माजिद से मिला। उसने गांव को छोड़ने का आग्रह किया, मगर हम फैसला कर चुके थे। हमारे निश्चय को भांप कर उसने मेरे गाल पर हल्की-सी चपत लगाते हुए कहा था- "तुम साले कश्मीरी पंडित सब कायर और डरपोक हो।"
"हां, हम सब कायर हैं....हमारा ईश्वर भी डरपोक है ....." मेरे स्वर में एक विचित्र आक्रोश था... नहीं, अवसाद
" बिल्कुल सच । तुम्हारे ईश्वर को तैरना तक नहीं आता है।' मैं चुप रहा था बहस का समय नहीं था। मैं माजिद से गले मिला। उसकी आंखों में आंसू थे। घर पहुंचा, तो ट्रक में सामान भरा जा रहा था। मैंने अपनी कुछ जरूरी किताबें पैक की और उन्हें ट्रक में रखा। फिर मैं घर के ठाकुरद्वारे से भगवान की मूर्ति उठा लाया। उसे कपड़े से लपेटा और अंधकार में सबकी नजरों से बचता हुआ लिटर दरिया की तरफ गया। वहां पहुंचते ही मैंने भगवान की मूर्ति दरिया में फेंक दी। मुझे उस समय लगा, जैसे मैं किसी भारी बोझ से मुक्त हो गया। रात के सन्नाटे में दरिया का बहना कितना सुकून देने वाला होता है - इसे मैं पहली बार अनुभव कर रहा था। मैं इस सन्नाटे में अकस्मात चीखने लगा-"हमारे ईश्वर को तैरना नहीं आता।" और बार-बार इसे दोहराता रहा। इस वक्त मुझे कोई चीखते हुए सुनता, तो पागल समझता। सर्दी बढ़ रही थी। मैं हल्के कदमों से घर लौट रहा था। सुबह तीन बजे हमारी ट्रक को जम्मू के लिए रवाना होना था।
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साभार:- महाराज कृष्ण संतोषी एंव 1996 नवम्बर कोशुर समाचार