काल चक्र

काल चक्र


काल चक्र

सोनिका दुरानी

 

वक्त ऐसा गया, कि फिर लौटा नहीं

पीछे छूटीं जाने कितनी मिटती आकृतियां

वह तो हुई पूरी नहीं, पर नई बनीं, शायद खुद ही बनीं

काल के उस चक्र में खो गया जो

फिर लौटा नहीं।

बढ़ना है हमें नए पथ पर

इक नए शिखर पर।

उन ढह चुके घरों पर जम जाएगी मिट्टी

फिर उग आएगी घास यूं ही

बनेंगे नए घर जिनके वह होंगे नई नस्ल के

दूसरी ही फसल के

मिट्टी का वह जर्रा जाने कहां दब जाएगा;

पर किसको होगी परवाह

क्या था, यहां और कोई रहता

जो खो चुका जाने किन दिशाओं में;

हम भी गुम जाएंगे क्या यूं ही

क्या कोई रास्ता नहीं

जो फिर मिलाए हमें

उस धरती की फिजाओं में हमें

हां, जाना हमें बहुत दूर है

हमें ऊंचा, बहुत ऊंचा जाना है

पर वह काल ही खो जाएगा

कृष्ण की द्वारिका की भांति

धुंधली आकृतियों के

किसी अथाह समुद्र में ।

अस्वीकरण:

उपरोक्त लेख में व्यक्त विचार अभिजीत चक्रवर्ती के व्यक्तिगत विचार हैं और कश्मीरीभट्टा .इन उपरोक्त लेख में व्यक्तविचारों के लिए जिम्मेदार नहीं है।

साभार:- सोनिका दुरानी एंव 1996 नवम्बर कोशुर समाचार