विशिष्ट जनहिताय, विशिष्ट जन सुखाय!
एस एन भट हलीम
जनतंत्र अथवा लोकतंत्र की संक्षिप्त परिभाषा करते हुए प्रायः भगवान बुद्ध की इस सूक्ति का पारायण किया जाता रहा है- 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय'। जिस व्यवस्था में बहुत लोगों का हित हो और बहुत लोगों को सुख प्राप्त हो, वह व्यवस्था लोकतंत्र से अभिहित की जा सकती हैं। संभवतः भगवान बुद्ध के अवतरण तक समाज के विधि- विधान और संरचनात्मक समारंभ में इतना परिवर्तन आ गया था कि लोगों को 'सर्वे भवन्तु सुखिनाः, सर्वे सन्तु निरामया:' का वेदोपदेश बदलना पड़ा और उसकी जगह 'बहुजन हिताय' की परिभाषा अपनानी पड़ी। भारतेतर देशों विशेषतः पश्चिम में अनेक राज्य व्यवस्थाओं के प्रचलन में लोकतंत्र की वर्तमान पद्धति के अनेक रूप उभरे, किन्तु एक परिभाषा उन सब पर हावी हुई और वह थी - Government of the people, by the people, for the people, (लोगों की सरकार, लोगों द्वारा, लोगों के लिए)। इन सिक्काबंद नारों की छत्रछाया में क्या कुछ हुआ यह इतिहास के पारखी लोगों का चिन्तनीय विषय है। सब जानते हैं कि राज्य शासन व्यवस्था, पद्धति विशेष निश्चित परिवेश में अब तक रखे नहीं गए हैं। शायद ऐसा करना संभव भी नहीं था, किन्तु यह भी एक तथ्य है कि मूलभूत धारणा के आधार की प्रतिबद्धता से किसी भी देश, समाज या शासन पद्धति ने अभी तक उपेक्षा करने का साहस नहीं जुटाया। चाहे वह अधिनायकवाद (Dictatorship) था, घुटवाद था, तथाकथित साम्यवाद (Communism ) था, समाजवाद (Socialism) था या सर्वसमभाववाद (सर्वोदय) था। हमेशा यही उद्घोष किया जाता रहा कि बहुजन का हित ही लोकतंत्र का मूलाधार है। चूंकि बहुजन सर्वहारा वर्ग है, गरीब है, दरिद्र है और सत्ताहीन होते हुए भी सत्ता का स्रोत है, अतः जो भी वर्ग, व्यक्ति विशेष, संघविशेष सत्ता की टोह में रहा, उसे यही नारा देना पड़ा- 'बहुजन हिताय बहुजन सुखाय' । लेकिन जो बिडम्बना इसकी पिछलग्गू रही, वह सदा इसकी वास्तविकता को आवृत्त करके विशिष्ठ जन को ही संरक्षण में रखती रही। कदाचित यह साया था उस अवधारणा का जिसका आधार- जिसकी लाठी उसकी भैंस (Survival of the fittest) पर टिका है। कुछ जंगल के कानून का अंश और कुछ सभ्य समाज की विकसित धारणा का अंश- दोनों मिलकर जब एकांश बने ते उसका रूप 'विशिष्टजन हिताय, विशिष्टजन सुखाय' हो गया और यही वास्तविकता हम सबको क्रियात्मक रूप में अपनानी पड़ी। इस प्रक्रिया में मननशीलता ने दम नहीं तोड़ा, वाद पर वाद उभरे, फिसले और लुप्तप्राय हो गए। सच्चाई किसी और स्तर पर एकनिष्ठ हो तो हो, किन्तु राजनीति के क्षेत्र में इसका स्वरूप परिवर्तनीय लगता है। अन्यथा आज जिस विडम्बना का सामना विश्व भर में हो रहा है, वह न होता।
यों तो प्राचीन काल से ही 'विशिष्ठजनहित' का बोलबाला रहा है। भगवान कृष्ण तक को गीता में कहना पड़ा-
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तन्तदेवेतरो जनाः ।
स यत्प्रमानं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥
लोक अर्थात लोग श्रेष्ठ जनों के आचरण का अनुसरण करते हैं। युक्ति दी जा सकती है कि यहां श्रेष्ठ से तात्पर्य बी.आई. पी. या विशिष्ठ जन नहीं, किंतु इतिहास साक्षी है। कि विशिषजन के पद को संभालने वाले भीष्म, द्रोण जैसे महापुरुष भी श्रेष्ठता की उस कसौटी पर खरे नहीं उतरते, जो इस शब्द विशेष की आदर्श व्याख्या करने वाले करते हैं तथा यही है कि विशिष्ट पदधारी व्यक्ति हर दृष्टि से आदर्श पुरुष ही रहा हो, ऐसा नहीं है। हां, सत्ताधारी होने अथवा सत्ता पर किसी भी प्रकार का नियंत्रण रख सकने के आधार पर जिस किसी को विशिष्ठता सुलभ हुई, वह विशिष्ठ जन कहलाया और सत्ता के सभी अंग-प्रत्यंग उसका संरक्षण करना अपना परम कर्त्तव्य मानने लगे।
ऐसे व्यक्ति बहुत कम होते हैं और इनमें जाति भेद, ऊंच-नीच, अथवा रंग एवं वर्ण भेद प्रायः नहीं आंका जाता।
ब्रिटिश शासन में ऐसे दो प्रकार के वर्ग थे-एक सरकार के दुमछल्ले, जिनको रायबहादुर आदि उपाधियों से संतुर किया गया था। दूसरा वर्ग-संपन्न घरानों का सत्ता विरोधी वर्ग था— उनको जेल भी जाना पड़ा, लेकिन उनकी दशा आम स्वातंत्र्य सैनिकों की दशा से भिन्न रही। कभी-कभी ऐसे लोगों में से भी किसी के विरुद्ध क्रूर व्यवहार होता था, वह भी तब जब वह किसी भी तरह हत्थे नहीं चढ़ता था। लेकिन यह बात सर्वविदित है कि नेता नाम देकर विशिष्टजन का हित तत्कालीन शासकों को भी ध्यान में रखना पड़ता था। ऐसी परिस्थिति में यदि कहीं कोई अनपेक्षित घटना हो जाती तो, संसार त्राहि-त्राहि करता था। वरना कीड़े-मकौड़ों की तरह मरने वाली जनता जनार्दन की त्रासदी पर कभी कहीं बवंडर उठता दिखाई न दिया।
यह शाश्वत सत्य ध्यान में रखते हुए भी जब देश स्वतंत्र हुआ, तो जनतंत्र की घोषणा का आधार लोकहित रखा गया— अन्य शब्दों में 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय'। संविधान बना, मूलभूत अधिकारों की घोषणा हुई, सब कुछ वही हुआ, जिसकी परिकल्पना सबके मन को भाई । जन्नत की परिकल्पना किसको आकर्षित न करती। लेकिन मिर्जा गालिब जैसा विपल्वी जब इन शोबदाबाजियों (जादुई सूक्तियों) से हताश हुआ तो उसे कहना पड़ा-
हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन।
दिल के बहलाने को गालिब यह खयाल अच्छा है।
निस्संदेह लोकतंत्र का नारा दिल का बहलावा ही है, अन्यथा इसे हमें ऐसी व्यवस्था कहना पड़ेगा, जो विशिष्ठजन हित की व्यवस्था है। जहां देखो, जिधर देखो - विशिष्ठ जन का ही बोलबाला है।
प्रश्न यह है कि विशिष्ठजन यदि शास्त्रीय अर्थों में श्रेष्ठजन का पर्याय होता तो हमें उनका अनुकरण करने में कोई आपत्ति नहीं होती। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है। जिन व्यक्तियों ने विशिष्ठजनों की पदवियां संभाली हैं, उनमें अधिकांश ऐसे लोग हैं जिनका नाम अकिंचनों के लिए भी लज्जास्पद होगा। लेकिन वर्तमान व्यवस्था में उनको विशिष्ठता का ठप्पा लग गया है, अतः उनका मन मारकर अनुकरण करना हमारी मजबूरी बन गया है। आश्चर्य यह कि ऐसे विशिष्टजनों की संख्या कम नहीं-इतनी है कि जीवन के सभी क्षेत्रों पर उनका मनहूस साया मंडराता रहता है।
अपराध बढ़ रहे हैं। चरित्रहीनता का आतंक गहराता जा रहा है, राजनीति में जुर्मों की संख्या सीमातीत हो रही है – ये सब बावेला रोज सुनने में आता है, लेकिन इस बावेले के पीछे कौन सी आवाज है, जिसको प्रिंट या ध्वनि मीडिया स्वर दे रहा है-सोचकर भांपिए- यह उस विशिष्ठ वर्ग का ही स्वर है जो अपने ही स्तर के अन्य पक्ष को नीचा दिखाने की चाल चल रहा है। काश! यह लोक स्वर होता और बवंडर बनकर लोकमानस को उद्वेलित करता। ऐसा न हुआ न होगा, क्योंकि विशिष्ठजन के हित का हनन व्यवस्था को मान्य नहीं। इस उद्देश में पक्ष, प्रतिपक्ष सब एकमत हैं।
इस अभिमत के दो ही निष्कर्ष हो सकते हैं 1. लोकवाद के लिए निराशा और 2. विशिष्ठता की दौड़ में भागीदारी।। दूसरा निष्कर्ष तो सदा ही कार्यरत है। तभी तो आए दिन इस वर्ग के लोग बढ़ते ही हैं, घटते नहीं रहा प्रथम निष्कर्ष - निराशा की अति उदासीनता में परिवर्तित हो रही है। ज्यों-ज्यों विद्या व शिक्षा का विस्तार होगा, लोग सत्ता की क्रूरता से छुटकारा पाने के प्रयास में जुट जाएंगे। जरूरी नहीं कि वे विद्रोह ही करें, वे निस्संग रहकर भी गम के बगैर जीवन निर्वाह कर सकते हैं। ऐसा युग बहुत निकट है, ऐसी बात नहीं। इसके लिए लंबा समय चाहिए, परंतु संकेत यही है कि लोकहित का छलावा धीरे-धीरे आकर्षणहीन होता जाएगा। भावुकता यथार्थ के सांचे में दल जाएगी और उपेक्षा की चोट विशिष्ठता के महल को खंडित करने में कुछ हद तक सफल होगी। हो सकता है। तब कहाँ 'बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय' का उद्घोष चरितार्थ होगा।
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साभार:- एस एन भट हलीम एंव 1996 नवम्बर कोशुर समाचार