विचार मंथन  - यारी मेरे यार की

विचार मंथन  - यारी मेरे यार की


विचार मंथन  - यारी मेरे यार की

अर्जुननाथ भट्ट 'मजरुह'

मेरे प्रियवर ! मेरे महबूब ! मैं जब भी तुम से मिलता हूं, तुम्हें देखता हूं. तुम्हारी शफकत में नहलाता हूं और तुम्हारी नज़रों से घायल हो जाता हूं, मुझ पर एक सीमाबी सेहरन सवार हो जाती है और मैं काफ़िर बन जाता हूं। तुम्हें देखता रहता हूं। भले ही तुम्हें बुरी नजर से बचाने के लिए नजरें झुका कर देखना मेरा स्वभाव बन गया हो। अपनी यह दशा और तुम्हारी मासूमियत, अपनी पकती उम्र और तुम्हारी रसीली जवानी अपनी ख्वाहिशें और तुम्हारी शहाना सादगी को देखता हूं तो संभवतः किसी होने वाली अवांछनीय होनी से पशैमानी का आभास करते ही तोबा करता हूं। मगर महबूब से मिलन की तपन इस कदर कहर बरपा करती है। कि तुम्हें सामने या ख्यालों में देखते ही मेरी आखिरी तोबा भी पानी पर खिची लकीर बन जाती है और मैं अनायास कुफुर का शिकार हो जाता हूं।

भले तुम्हें देखकर कौन काफ़िर न बन जाए और क्योंकर नहीं? तुम्हारी सुहानी छवि देखकर ब्रह्मांड की गति रुक जाए तो भला नाचीज की क्या बात कीजिए। सब्ज़ चुन्नी में लिपटा वह तुम्हारा शादाब बदन, वह टुकुर-टुकुर देखती तुम्हारी सुरमई आंखें, लदा बंदन, नाक-नक्शे की लाजवाब बनावट, शहनशाही कद और चाल, यह जवां बाला के सीने की ईमान को फिसलाने वाली उभरती बनावट, बदन की वह बहार में फूटती कोंपलों की पशमीनी नरमाई और गालों पर खिजां के रंगों की धमक! भला इसके आगे किसका ईमान न डोले ! बाबा आदम तो केवल सेब देखकर बहक गया था और बड़ी ही हीनता से स्वर्ग निकाला हो गया; भला हम किस खेत की मूली हैं।

मेरे प्रियवर! जब यार इस कदर चंचल और सुन्दर होने के साथ-साथ जरूरत से अधिक शफ़ीक और उद्धार भी हो, परी सूरत होने के साथ-साथ सखी सीरत भी हो तो किनारे रहना कैसे संभव है? अतीत की वे सारी यादें और आज की यह जानलेवा प्यास ही तो मेरी रशक करने वाली पूंजी बन गई है। याद है मुझे वह एक-एक क्षण बिल्कुल याद हैं, जब तुमने अपने सारे सुख मेरी झोली में भर दिए, अपना रोम-रोम और तार-तार मेरे नाम कर दिया; समय- समय पर औरों से नजरें चुराकर मुझे गले लगाया। अपनी पुरकशिश बाहों में लेकर अपने धड़कते सीने से लगाया, जीवन की घनी धूप की गर्मी से बचाने के लिए मुझे अपनी जुल्फों की छांव में सुलाया। जीवन की बरसातों में मेरे अध-भीगे बदन को अपनी गर्म-गर्म भीगी बाहों में छुपाकर अपने बदन से लिपटाए रखा और खुद निर्भीक होकर बरसते पानी में भीगते रहे ! इतने समय से मैं तुम्हारी सखावत से लाभान्वित होता रहा। मैं कैसे यह सब कुछ जीवन के इस मुश्किल मोड़ पर भुला सकता हूं? तुम्हारी सच्चाई और शाहाना सादगी कैसे भुलाई जा सकती है?

मेरे महबूब ! तुमने मुझसे कभी मुंह न फेरा, अपनी सारी शादाबी और अपने वजूद के सारे सुख मेरे लिए रखे और मुझे अपना दीवाना बनाया। किसी भी हाल में तुम मुझसे नहीं कतराए, तुम्हारी सखावत कभी कम न हुई, यहां तक कि जब तुम नंगे तन-बदन भी थे, तुमने मुझसे कभी आंख न चुराई और मुझे उस हाल में भी अपनी आभा को निहारने के सुअवसर दिए और मैं देखता रहा..... पीता रहा तेरे बदन की पुरलज्जत बीनी-बीनी खुशबू.... और वर्षों पीता रहा मैं यह दैवी अमृत ! मेरे प्रियवर ! तेरे बदन के किस अंग की चाल और बनावट से मैं परिचित नहीं हूं, तेरे बदन की किन घाटियों और पहाड़ियों से मैं बे-खबर हूं! अपनी अनन्त सखावत से तुमने मुझसे कब कुछ छुपाया; इधर तो सखी हातिम भी झोली फैलाए दीख पड़ता है। हर हाल में तुम मुझसे उसी प्यार और शिष्टाचार से मिलते रहे, उसी शफ़कत और ईसार से मालामाल करते रहे और आज भी करते हो अगरचि हालात के बदले तेवर ने हम दोनों पर सितम की भेड़ियां डाल दी है। हम दोनों एक-दूसरे के पास होकर भी एक-दूसरे से कितने दूर हैं! कितने बेखबर और किस क़दर मजबूर हैं, अगरचि तड़प दोनों की हृदय विदारक है और आग दोनों ओर बराबर। याद है मुझे घटनाक्रम के वे दृश्य जब सामयिक शारीरिक समस्याओं या सांसारिक हिंसा से तुम कराह उठते तो मैं तुझे कैसे सहलाता रहा, तेरे दर्द को अपने सीने में महसूस करता रहा, चारों हाथ तुम्हारे अंग सहलाता रहा.... प्यार में डूबकर बार-बार काफिर बनता रहा और तुम्हारी झुकी पलकों की छवि और होठों पर हल्की मुस्कान इस बात की गवाही देती कि तुम्हें मेरा कुफुर किस कदर अच्छा लगता था। तुम आंखें मीचे, खामोश जादूई समां पैदा करते और मैं तुम्हारे काबिली रशक और दूध से नहाए बदन को देखता रहता!

मेरे महबूब ! तुमसे कोई बात छिपी नहीं है। तुम भी यह बात अच्छी तरह जानते हो कि मैं आज भी तुम्हें देखकर, तुमसे मिलकर या तुम्हारे बारे में सोचकर हर चंद तोबा करने के बावजूद काफिर बन जाता हूं। तुम्हारे नूरानी वजूद को झुकी झुकी और बुझी बुझी नजरों से निहारता हूं, तड़पता हो, कराह उठता हो। मेरे महबूब ! क्या तुम भी कभी मेरे दर्द को अपने सीने में महसूस करते हो? मेरी तड़प से तड़प उठते हो? मेरी आह की आग से तिलमिला उठते हो? क्या तुम भी प्यार के मीठे दर्द की कड़वाहट से ऊब कर दिन का आराम और रातों की नींद खो चुके हो?

मेरे प्रिय मेरे ख्वाबों के मेहवर घर के पिछवाड़े से जरा हटकर देवालय के करीब, पहाड़ी के दामन में, वितस्ता के किनारे....[मेरे प्रिय पाठक। इससे आगे यह आखिरी वाक्य तब तक पूरा न पढ़ना जब तक कि तुम भी मुझसे पूरी तरह बदगुमान ने होते - ताकि मुझे फिर एक बार पशैमानी का आभास होता और कुफुर के तोबा में सिर झुकाता क्योंकि इस आभास में भी महबूब की खुशबू रची-बसी होगी और मैं इसी बहाने बिछड़े यार की खुशबू से महक उठता- क्योंकि इसके आगे लाख छुपाने के बावजूद अनायास बड़ी निठुरता से महबूब के नाम का जिक्र है।]....बंड पर खड़े खामोश चिनार क्या तुम्हें भी कभी मेरी याद आती है?

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साभार:- अर्जुननाथ भट्ट 'मजरुह एंव 1996 नवम्बर कोशुर समाचार

Arjun Nath Bhatt Majruh