प्रो. पृथ्वीनाथ पुष्प -एक प्रभावशाली व्यक्तित्व

प्रो. पृथ्वीनाथ पुष्प -एक प्रभावशाली व्यक्तित्व


प्रो. पृथ्वीनाथ पुष्प -एक प्रभावशाली व्यक्तित्व

डॉ. ओंकार कौल

कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो अपनी बहुमुखी प्रतिभा, विद्वता और व्यक्तित्व से अल्पकाल में ही किसी को भी प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। प्रो. पृथ्वीनाथ 'पुष्प'

उनमें से एक थे। कश्मीरी भाषा, साहित्य, कला एवं संस्कृति के विभिन्न क्षेत्रों में उनकी बहुमुखी प्रतिभा और विद्वता के सहजतया दर्शन होते हैं। भाषा वैज्ञानिक के रूप में उन्होंने कश्मीरी भाषा की ध्वनि, रूप, वाक्य एवं आर्थी संरचना से संबंधित कई पक्षों का अध्ययन किया। कश्मीरी साहित्य की विभिन्न विधाओं को अपनी पैनी आलोचनात्मक दृष्टि से परखा है। कश्मीरी कला और संस्कृति के विभिन्न पक्षों की विद्वतापूर्ण विवेचना प्रस्तुत की है। इन सभी क्षेत्रों में उनके स्वतंत्र चिन्तन का प्रतिबिम्ब मिलता है। वे कश्मीरी साहित्य के एक मर्मज्ञ आलोचक ही नहीं, अपितु एक सहृदय साहित्यकर्मी भी थे। उनकी मौलिक साहित्यिक रचनाओं विशेषकर, कविताओं में उनकी सहृदयता के दर्शन होते हैं (कश्मीरी में उनके दो काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए हैं)। कश्मीरी भाषा, साहित्य-कला एवं संस्कृति के विभिन्न पक्षों से संबंधित प्रो. पुष्प की रचनाएं कश्मीरी, हिन्दी, उर्दू एवं अंग्रेजी भाषाओं में प्रकाशित हुई हैं। उनकी रचनाओं में कई पुस्तकें और विभिन्न लेख शामिल हैं।

यहां मेरा अभिप्राय प्रो. पुष्प के लेखन तथा उनके योगदान की चर्चा करना नहीं है, केवल उनके सान्निध्य के आधार पर उनके प्रभावशील व्यक्तित्व के कुछ पक्षों का उल्लेख करना है।

प्रो. पुष्प से मेरी पहली भेंट कश्मीर विश्वविद्यालय (श्रीनगर) में 1963 ई. में हुई। वे मेरी एम. ए. परीक्षा से संबंधित लघु शोध-प्रबंध के परीक्षक नियुक्त हुए थे और मेरी मौखिक परीक्षा लेने के लिए आए थे। लघु शोध प्रबंध का विषय 'प्रकाशराम द्वारा रचित कश्मीरी के प्रथम रामायण' से संबंधित था। औपचारिकता निभाते हुए उन्होंने दो-चार शब्दों में मेरे कार्य को सराहा और फिर प्रश्न पर प्रश्न पूछते रहे। कई प्रश्नों के उत्तर भी वे आप ही देते रहे। उनके इस व्यवहार से जितना आत्मविश्वास बढ़ा उतना ही संकोच भी। रामकथा काव्य से संबंधित कई विषय उभर कर सामने आए। शोध कार्य की नई संभावनाओं के बारे में मैं प्रेरित हुआ। इस औपचारिक प्रथम भेंट में ही प्रो. पुष्प ने इतना प्रभावित किया कि मैं भावी शोध कार्य के बारे में उनसे परामर्श लेने के लिए प्रेरित हुआ। यह सिलसिला प्रथम भेंट के पश्चात् ही जारी हुआ और कई वर्षों तक चलता रहा।

1964 ई. से 1967 ई. तक मैं आगरा विश्वविद्यालय के क. मु. हिन्दी तथा भाषाविज्ञान विद्यापीठ में शोध कार्य करता रहा। विषय था 'कश्मीरी और हिन्दी रामकथा काव्य का तुलनात्मक अध्ययन'। प्रायः हर वर्ष विषय संबंधित सामग्री एकत्रित करने के लिए कश्मीर जाना पड़ता था। श्रीनगर में हमेशा प्रो. पुष्प से मिलना और उनसे विचार-विमर्श करना अपने आप एक अटूट नियम बन गया (यह नियम वर्षों तक बरकरार रहा। चर्चा के विषय अवश्य बदल गए)। प्रो. पुष्प उन दिनों जम्मू कश्मीर राज्य सरकार के शोध और पुस्तकालयों से संबंधित विभाग के निदेशक थे। जब भी मैं उनसे मिलने उनके कार्यालय जाता, वे अपने स्वभाव के अनुरूप कुर्सी से खड़े होकर बड़ी आत्मीयता से मिलते। हाथ मिलाते और गले लगाते। हालचाल पूछते ही वे मेरे शोध कार्य की प्रगति के बारे में पूछते। शोध कार्य से संबंधित सामग्री एकत्रित करने में, विषय से संबंधित नई उभरी समस्याओं और उनके समाधान से संबंधित अपने अमूल्य सुझाव दे देते। उनकी सहायता से ही मुझे कश्मीरी 'शंकर रामायण' की शारदा लिपि में लिखित पाण्डुलिपि शोध पुस्तकालय से मिली। अन्य कश्मीरी रामायणों की पाण्डुलिपियों को खोज निकालने में मदद मिली।

कश्मीरी साहित्य के मर्मज्ञ विद्वान और आलोचक के रूप में प्रो. पुष्प की प्रतिष्ठा से मैं भली-भांति परिचित था और उनसे कश्मीरी साहित्य के किसी भी पक्ष पर विचार- विमर्श करने का लोभ अपने आप बढ़ता गया। मुझे याद है। उन दिनों जितने भी मेरे अन्य मित्र कश्मीर से बाहर कश्मीरी और हिन्दी भाषा-साहित्य के किसी भी विषय से संबंधित शोध कार्य करते थे, वे सब प्रो. पुष्प से परामर्श लेते रहते थे। कश्मीरी भाषा, साहित्य, कला और संस्कृति से संबंधित किसी भी विषय पर कार्य करने वाले शोधार्थी प्रो. पुष्प के सलाह मशविरे से बराबर लाभान्वित होते रहे।

मैं 1969 ई. से 1971 ई. तक अमेरिका में अध्ययन एवं अध्यापन करता रहा। इस दौरान मेरी रुचि साहित्य की अपेक्षा भाषा-विज्ञान में बढ़ी। अमेरिका से लौटकर भारतीय भाषा संस्थान के उत्तर क्षेत्रीय भाषा केन्द्र पटियाला में प्राचार्य के पद पर कई वर्ष कार्य किया। यहां का मुख्य कार्य क्षेत्र कश्मीरी, उर्दू और पंजाबी भाषाओं का द्वितीय भाषा के रूप में अध्यापन एवं इन भाषाओं से संबंधित सामग्री निर्माण था। कश्मीरी भाषा के अध्यापन तथा सामग्री निर्माण से संबंधित अन्य विद्वानों के अतिरिक्त स्वाभाविकतः प्रो. पुष्प से पत्र-व्यवहार बढ़ गया और उनसे मुलाकातें बढ़ीं। प्रो. पुष्प को मैंने भाषा विज्ञान के क्षेत्र में भी काफी सक्रिय पाया। भाषा विज्ञान से संबंधित सम्मेलनों और संगोष्ठियों में प्राय: प्रो. पुष्प से भेंट होती रही। वे हमारे केन्द्र द्वारा आयोजित कई गतिविधियों के साथ भी जुड़े रहे। 1979 ई. में हमने अखिल भारतीय कश्मीरी भाषा और उसके शिक्षण से संबंधित एक संगोष्ठी का आयोजन किया। प्रो. पुष्प उसमें सम्मिलित हुए। संगोष्ठी में उन्होंने मुख्य भाषण देकर विशेष भूमिका निभाई। संगोष्ठी की सफलता में प्रो. पुष्प का मुख्य योगदान रहा।

इस संगोष्ठी में प्रो. पुष्प ने एक मत पारित कराया, जो इस प्रकार था—''इस बच्चों के अंतरराष्ट्रीय वर्ष में कश्मीरी बच्चों को अपनी मातृभाषा के माध्यम से शिक्षा ग्रहण करने से वंचित न रखा जाए।" कश्मीरी भाषा साहित्य के प्रचार और विकास के कार्य में वे हमेशा जुड़े रहे।

कश्मीरी भाषा, साहित्य कला और संस्कृति से संबंधित कोई भी सम्मेलन या संगोष्ठी कहीं भी हो, प्रो. पुष्प का उसमें आमंत्रित होना अनिवार्य हो गया था। अधिकतर ऐसे सम्मेलन या समारोह कश्मीर विश्वविद्यालय, जम्मू व कश्मीर कल्चरल अकादमी, साहित्य अकादमी जैसी संस्थाएं करती रहती हैं। कुछ वर्ष पूर्व कश्मीरी भाषा-साहित्य में सर जार्ज ग्रियर्सन के योगदान के विषय पर कश्मीर विश्वविद्यालय के कश्मीरी विभाग ने संगोष्ठी की, उसमें भी मुख्य भाषण प्रो. पुष्प का ही था। ऐसे समारोहों में उनका उत्साह देखते ही बनता था।

कुछ वर्ष पूर्व केरल साहित्य अकादमी ने तुलनात्मक भारतीय साहित्य पर दो खंड प्रकाशित किए। कश्मीरी भाषा- साहित्य से संबंधित प्रविष्टियों का संपादन प्रो. पुष्प ने ही किया। यह कार्य सराहनीय है। केन्द्रीय साहित्य अकादमी की एक अन्य परियोजना में जिसके मुख्य संपादक डॉ. के. एम. जार्ज हैं, में भी उनकी प्रविष्टियां सम्मिलित हैं। जनवरी 1988 में त्रिवेन्द्रम में डॉ. जार्ज से भेंट के दौरान, डॉ. जार्ज प्रो. पुष्प की विद्वता की प्रशंसा बड़ी देर तक करते रहे। कश्मीर से सुदूर स्थान पर एक अन्य रम्य वातावरण में डॉ. जार्ज जैसे विद्वान से प्रो. पुष्प की विद्वता की प्रशंसा सुनना कितना अच्छा लगा, वह अवर्णनीय है। डॉ. जार्ज का कहना था कि इस बात की चिन्ता नहीं है कि प्रो. पुष्प यदि विलम्ब से ही प्रविष्ठियां भेजते हैं, परंतु उनका लेखन विद्वतापूर्ण होता है जिसके लिए किसी भी मूल्य पर प्रतीक्षा की जा सकती है। जब मैंने कुछ दिनों के बाद प्रो. पुष्प से दिल्ली में, अपनी भेंट के दौरान इस बात की चर्चा की तो वे केवल मुस्कराए।

कश्मीरी भाषा-साहित्य पर कार्य करने वाले स्थानीय शोधार्थियों के अतिरिक्त अन्य देश विदेश के विद्वान प्रो. पुष्प से मिलना और उनसे विचार-विमर्श करना अपना सौभाग्य मानते थे। कश्मीरी भाषा पर करने वाले मेरे सहयोगी अमेरिका के प्रो. पीटर हुक उनसे अत्यधिक प्रभावित थे। वे जब भी कश्मीर आते थे तो प्रो. पुष्प से घंटों विचार-विमर्श करते थे।

सहनशीलता प्रो. पुष्प के व्यक्तित्व का अभिन्न अंग थी। उनकी सहनशीलता की दाद दिए बिना नहीं रहा जा सकता। कई वर्ष पूर्व मैंने उन्हें सानुरोध उड़ीसा के कटक जिले में किन्हीं दूरवर्ती स्कूलों में कश्मीरी भाषा के प्रशिक्षित शिक्षकों के शिक्षण कार्य का मूल्यांकन करने के लिए भेजा। वहां उन्हें बहुत सारी असुविधाओं का सामना करना पड़ा, जिनका उन्होंने लौटने पर वर्णन किया। उन्हें भीलों कच्चे रास्तों पर पैदल चलना पड़ा यहां तक कि कुछ नदियां पार करनी पड़ीं। उनसे यह वृतांत सुनकर जितना अफसोस मुझे हो रहा था, उतना ही वे प्रसन्नचित्त दिखाई दे रहे थे। उन्होंने कितने ही साहस और निष्ठा से उन असुविधाओं का सामना किया था। यह सब उनकी मुझ पर अनन्नय कृपा के कारण ही हुआ। उनके चेहरे पर थकान के निशान नहीं थे।

उनका व्यक्तित्व सहजतया किसी को भी प्रभावित करता था। मित्रों और परिचितों से तपाक से मिलना, गले लगाना, खिलखिलाकर हंसना या कहकहे लगाना और आत्मीयता के साथ बार-बार अपने मित्रों का हाथ पकड़ना, उनका सहज स्वभाव बन गया था। वे छोटे-बड़े सबसे खुले दिल से मिलते थे। कोई भी उनके घर जाए तो अच्छी खासी खातिर करते थे। उनके पैदल चलने की चाल भी उतनी ही तेज थी, जितनी किसी भी समस्या को सुलझाने की। समस्या कोई भी हो वे उसके साथ प्रसन्नचित उलझना जानते थे।

कोई भी अवसर प्राप्त हो, उनसे मिलने को मन करता था। कुछ वर्ष पूर्व मैं भाषा-विज्ञान से संबंधित किसी अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी भाग लेने के लिए दिल्ली विश्वविद्यालय में था । अपनी एक मित्र डॉ. रेखा असलम

से सुना कि प्रो. पुष्प दिल्ली में हैं और मॉडल टाउन में किसी रिश्तेदार के यहां हैं, तो उनसे मिलने के लिए मन एकदम आतुर हो उठा। संगोष्ठी का एक सत्र छोड़कर मैं रेखा के साथ उनसे मिलने गया। मिलकर मन बहुत प्रसन्न हुआ। लगभग एक घंटा उनसे विभिन्न विषयों पर बातचीत की। प्रो. पुष्प से यह मेरी अंतिम भेंट थी।

प्रो. पुष्प से जितनी बार मिलने का अवसर मिलता था, उतनी ही अधिक तीव्र इच्छा होती थी बार-बार मिलने की, उनका अधिक-से-अधिक सान्निध्य प्राप्त करने की। उनसे बहुत कुछ सीखने को मन करता था। सबसे अधिक यह कि जटिल से जटिल समस्याओं का समाधान प्रसन्नचित रह कर कैसे किया जाए।

भारतीय भाषा संस्थान मानस गंगोत्री, मैसूर 570006 

 

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साभार:- डॉ. ओंकार कौल एंव 1996 नवम्बर कोशुर समाचार