मैं गाऊं
अर्जुन देव मजबूर
जी करता है
अक्षर से अ-क्षर हो जाऊं
शब्दों के आडम्बर
आवाज़े फीकी, नीरस
स्नेह रहित, उथली
उचली छिलती जो मेरा अंतस्तल
आस-पास शाश्वत गान
पक्षियों का मीठा संगीत
चित् के कानों से सुनूं
जी उठूं कुछ गाऊं
प्रातः का शीतल स्पर्श
ओढ़ लूं जलती काया पर
अंतःपुर कुछ शांत हो जाए
सोचों के अनन्त घेरे से
बाहर आ मिलूं शून्य में
शून्य हो जाऊं
विश्व- गान की लय ताल
पहचानूं, सुनूं, आनन्दित हो जाऊं
करकश स्वर आवाजों के
परिवेश विक्षुब्ध, अपनत्व कहां!
सुदूर गाती कोयलिया की,
मीठी ध्वनि, मन सरगम से,
एकाकार करूं, मैं गाऊं ।
वृक्षों की नन्हीं शाखाओं से
पत्तों से, फूलों से मिलूं
कुंकुम के घुंघरू बांधूं
झूम उठूं नर्तक हो जाऊं
छन छनक यह धरती नाचे
फले, फूले, फल लाए
वसुन्धरा हो जाए
इसके रोम रोम की धड़कन,
सुनूं, निहाल हो जाऊं
मैं गाऊं.... मैं गाऊं ।
अर्जुन देव मजबूर
अस्वीकरण:
उपरोक्त लेख में व्यक्त विचार अभिजीत चक्रवर्ती के व्यक्तिगत विचार हैं और कश्मीरीभट्टा.इन उपरोक्त लेख में व्यक्त विचारों के लिए जिम्मेदार नहीं है।
साभार: अर्जुन देव मजबूर एवं मार्च 1996 कोशुर समाचार