वतन की आंटी
डॉ जियालाल हंडू
कहानी
कश्मीरी भाषी डॉ. जियालाल हंडू 1948 से पंजाब के विभिन्न कॉलिजों में विभिन्न पदों पर रहे। सेवानिवृत्ति के बाद गोस्वामी गणेश दत्त सनातन धर्म कॉलिज, राजपुर (पालमपुर) हिमाचल प्रदेश के प्रिंसिपल थे। एक सफल प्राध्यापक, अनुभवी प्रशासक के अतिरिक्त डॉ. हंडू एक पत्रकार, समालोचक और लेखक भी हैं। चंडीगढ़ के कश्मीरी पंडित समाज द्वारा प्रकाशित पत्रिका "सुन्दर वाणी का आपने अनेक वर्षों तक सम्पादन किया। आप एक निष्काम समाज सेवी भी हैं और बेसहारा बीमारों की चिकित्सा के लिए स्वेच्छी संस्थाओं के माध्यम से सेवा अर्पित करते हैं। आपकी प्रमुख साहित्यिक कृतियां हैं-भाषा और साहित्य के विवेचन, कश्मीरी और सूफी काव्य का तुलनात्मक अध्ययन, रस विलास, हिमाचल की श्रेष्ठ कहानियां और कश्मीरी लोक गीत।
शौकत अब कश्मीर लौट रहा था, अपनी पत्नी जमीला और बेटी आयशा के साथ। नवपुर चण्डीगढ़ में उसने सुख के दिन बिताए थे। कश्मीर की हड्डियों को ठिठुराने वाली शीत से उसने निजात पाई थी। वह उस भय तथा आतंक से भी सुरक्षित था जिसे वहां आतंकवादियों ने फैला रखा था। उसका पिता वहां उन आततायियों की बलि चढ़ गया था जिसका स्मरण उसकी नस-नस में एक सिहरन उत्पन्न करता था। यहां वह गर्म शाल बेचकर अपने परिवार का पेट पालते हुए सन्तुष्ट रहता था। दिन-भर के परिश्रम के पश्चात् जब वह सायं को लौटता, अपने आत्मीयों से मिलकर राहत पाता था। नवजात भावना के इस सुखद वातावरण को त्यागकर वह अपने घर कश्मीर कभी लौटता यदि उसे भावी ग्रीष्म की तपन की याद न सताती और आयशा के स्कूल खुल जाने की चिन्ता न दबाती यहां का निश्चल और निश्चल स्नेह ही हृदय के कोने में समेट कर वह अनमने भाव से लौट रहा था। पांच-छः मास किराए के मकान में रहकर उसने जो सुख पाया था, वह उसे अन्यत्र मिलना दुर्लभ था। यहां न अशान्ति थी, न भय और न कोई आतंक बस एक परिपूर्ण शान्त परिवेश ।
बस पूरी तेजी से सर्पीली सड़क पर आगे बढ़ रही थी। चण्डीगढ़ से पठानकोट, फिर जम्मू और आगे भारत के वेनिस सौन्दर्यशाली कश्मीर की चिन्ताकर्षक घाटी। जवाहर टनल को पार करते ही उसे प्रकृति का खुला प्रांगण सामने दिखाई दिया। दूर-दूर तक फैले ऊंचे पर्वत और उन पर विराजमान देवदार तथा चीड़ के भव्य पेड़। वसंत के आगमन के साथ मन्द-मन्द चलने वाली शीतल सुगन्धित बयार । कई स्थानों पर अनावृत पृष्ठों की तरह पेड़ों पर फड़फड़ाने वाले पत्ते । कलकल करते हुए निर्मल झरने और उनका ठण्डा जल। पर न जाने यह मोहक सौन्दर्य उसे क्यों नहीं लुभा पाया। उसे ऐसा लगा जैसे हवाओं में सांपों के दहशत का विष व्याप्त है और प्रकृति के मुख पर मलिनता ने अपना डेरा जमा लिया है। शौकत की तरह ही जमीला का मन भी साथ वाले पेड़ों के संग पीछे की ओर ही दौड़ रहा था। भावी दहशत उनके स्वप्नों में पैठती जा रही थी। उनके चेहरों पर उदासी के भाव रेंग रहे थे। उन्हें लगता था कि वे आसुरी उन्माद के धुंधलेपन में प्रवेश कर रहे हैं। आखिर घर तो घर ही है जो सबको अपनी तरफ आकर्षित कर ही लेता है। तभी अंतर्भावों को मन में ही समेटकर ये आगे. बढ़ते जा रहे थे।
शौकत ने बीच रास्ते में न जमीला से कोई विशेष बात की और न ही बेटी आयशा से। मार्ग में वे कहीं-कहीं चायपान अथवा भोजन करने उतर जाते पर सोए भय को कभी व्यक्त न करते। जब शौकत चुपचाप जमीला की आंखों में आंखें डालने का प्रयास करता तब वह अपना सिर दूसरी तरफ मोड़ देती। परन्तु आयशा.वह भी अनमने ढंग से बाहर प्रकृति का दृश्य शून्य आंखों से देखने में लीन थी। उस पांच वर्ष की गुमसुम बालिका के हृदय में लगातार चण्डीगढ़ वाली आंटी का स्मरण कौंध जाता। उसे पश्चाताप् था कि बार-बार अनुनय-विनय करने पर भी उसके साथ कश्मीर आने के लिए वह मान क्यों नहीं गई। कितना स्नेह वह उस पर उड़ेल देती थी। उसे अपनी गोद में बिठाकर टाफियां खिलाती, बिस्कुट देती, चाय पिलाती और ऐसे पुचकारती जैसे वह चिरकाल से उसकी कोई सगी हो। थोड़े ही समय में उन दोनों का पारस्परिक प्यार नाखून मांस की तरह दृढ़ हो चुका था। उसे याद आता कि वह कितनी नरम दिल, स्नेहशील तथा मानवीय गुणों से सम्पन्न हैं।
आयशा को याद आता कि जब उसे शरारत सूझती वह किस तरह आण्टी की कॉल बेल बजाकर भाग जाती। आण्टी उधर से बाहर आकर उसका नाम पुकारती रहती पर वह एकदम वहां से भाग जाती और पास ही अपनी मां जमीला के यहां दौड़ जाती। उसे हांफती हुई देखकर मां पूछती 'आण्टी को तंग करके आ गई। कोई और होती तो तुम्हारे कान ऐंठती लेकिन वह तुम्हारे ऊपर गुस्सा क्यों करे। उसकी चहेती जो ठहरी।'
शौकत ने एक कमरा आण्टी के घर के समीप ही किराए पर ले रखा था। यहीं उसका उठने-बैठने, सोने-जागने, नहाने धोने और रसोई तैयार करने की एकमात्र जगह थी। वह इसी में खुश था। वह कभी-कभी कहाता कि स्थान की कमी तो सही लेकिन हृदय में प्यार की खुली जगह होनी चाहिए। उसके दिन में जाने पर जमीला अपनी बेटी आयशा के साथ आण्टी के पास आकर घण्टों बिता देती और खुलकर बातें करती। यहां न कोई उकताहट थी और न परायापन। अपनी मां जमीला को आण्टी के साथ कश्मीरी में बातें करते देखकर चकित हो जाती थी आयशा एक दिन अबोध बालिका ने अपनी बाल-सुलभ चपलता के कारण पूछा था' आण्टी अभी तक आप ही मुझे यहां मिली है जो कश्मीरी बोलती हैं। आप यहां कब से रह रही हैं।'? इस पर आण्टी ने उत्तर दिया था-'बेटी आयशा हमें यहां आए हुए छ: वर्ष हुए हैं। लगता है कि उस समय तुम ने जन्म भी नहीं लिया होगा। उत्सुकता से भरकर उसने पुनः पूछा था-' क्यों वहां से आये आप लोग जाने का विचार कब है?' इस बात को सुन कर आण्टी भावुकता से भरकर कह उठी थी- 'बेटी हम तो प्रवासी हैं। हमें कश्मीर छोड़कर तब आना पड़ा जब वहां विश्वास की पराजय हुई। आतंक बढ़ गया और राक्षसी पागलपन फैल गया। एक भाई दूसरे भाई का दुश्मन बन गया। प्यार नफरत में बदल गया। असुरक्षा बढ़ गई और आसुरी उन्माद से गिद्धों को दावत मिली। अपने पुरखों का घर छोड़कर तभी हमें यहां आना पड़ा। अब जब वहां शांति फैल जाएगी और यह सब अंधेरा मिटेगा, हम अवश्य अपने वतन आएंगे।' आयशा यह सब कुछ ध्यान से सुन रही थी। पर उसे सान्तवना मिल न सकी उसके हृदय में और पूछने की जिज्ञासा बढ़ती गई। उसने निस्संकोच अपने वतन की आण्टी से कहा-' आपको हम अपने साथ ले चलेंगे। मैं वहां सबसे कहूंगी कि देखो मैं अपने वतन की आण्टी को अपने साथ लाई हूं। आपके साथ वहां दिल भी लगेगा।' और यह कहकर वह मचल उठी थी। आष्टी हठीलेपन को देखकर समझाने लगी थी-'आयशा! मानवता का स्वप्न वहां जब खिल उठेगा, लल्लेश्वरी एवं नंदर्योष का समता सन्देश पुनः गूंज उठेगा और सर्वभक्षी आग मिट जाएगी, हम उसी समय कहा था-'हमारे मुहल्लों में भी कई खाली घर हैं। अब्बू कहते हैं कि ये पंडितों के घर हैं। अब मैं समझी कि ये घर खाली क्यों हैं जब उनमें रहने के लिए वे लौट आएंगे तो मिल जुलकर उठने-बैठने का कितना मजा आएगा। पर आण्टी, आप हमारे साथ ही क्यों नहीं आ रही हैं'-आयशा ने मनौती मांगते हुए कहा था।
वतन की आण्टी उसे किस तरह समझा देती कि वहां भाई-भाई के बीच दीवार खड़ी हुई है। होंठों पर ताला लगा हुआ है, जब तक वह नहीं हटेगा, जाना संभव न होगा। प्यार भरे शब्दों में उसने आयशा को अपने गले से लगाते हुए कहा था कि शहनाइयों से भरी वह सुबह वहां जरूर आएगी जब हम एक डाल के सभी पंछी मिलकर प्रेम से भरे खुशी के गीत गाएंगे। यह सुनकर आयशा के मुंह से अनायास ही निकल पड़ा था-या अल्लाह रहम कर। जमीला भी कह उठी थी- आमीन।
आयशा अपने विचारों में मग्न खोई बैठी थी। चुप्पी को तोड़ते हुए जमीला कह उठी-'बेटी आयशा, देखो अभी हमारे घर पहुंचने में पांच घण्टे बाकी हैं। अपने सभी रिश्तेदारों से हम मिलेंगे। उनके लिए हम जो भेंट लाए हैं, उन्हें दे देंगे। तुम्हारी मामी के लिए बुर्के का कपड़ा, मामा के लिए जूता, दादी के लिए ऐनक का फ्रेम और अन्य के लिए कोई न कोई चीज इन्हें पाकर वे कितने खुश होंगे?' आयशा 1 अनमने भाव से सब कुछ सुनती रही पर बोली कुछ भी नहीं। उसे चुप देखकर वह फिर बोली क्या तू गूंगी है, बोलती क्यों नहीं? आखिरकार घर ही तो लौट रहे हैं। तू अपनी सहेलियों से मिलेगी और बातचीत में उन्हें बाहर का अपना सारा अनुभव सुना देगी। वे सब तुम से प्यार करेंगी, बातें ध्यान से सुनेंगी। उत्सुकता बढ़ेगी और कोई न कोई सवाल पूछेंगी भी।' पर आयशा चुप, न हां न ना। एक नजर मां पर डालने के बाद वह फिर बाहर झांकने लगी।
बस तेज गति से आगे बढ़ रही थी लेकिन आयशा अपने हो विचारों में मग्न थी। शौकत कह उठा- 'बेटी, यह देखो। हम अब पालमपुर पहुंच गए हैं—यही है हिन्दू मुस्लिम को एक बराबर मानने वाली भक्त कवयित्री लल्लेश्वरी (लल्लद्यद) का जन्म-स्थान और केसर को उगाने वाला सुन्दर गांव। अब आगे और देखो बादाम के पेड़ जिन पर सफेद-सफेद शगूफों के गुज्चे दिलकश लग रहे हैं। यह कहते हुए उसने आयशा को झकझोरा लेकिन वह कुछ न बोली, चुपचाप बैठी रही।
बस संगम पुल को पार करके जब आगे बढ़ी उसमें एक झटका-सा लगा। हेयर-पेन की तरह टूटी-फूटी सड़क पर बड़े खड्ड थे। जमीला अपनी सीट से हटकर जब नीचे गिर पड़ी उसके पेट में एक जबरदस्त दर्द उठा। वह चिल्लाकर कहने लगी- 'हाय ! मैं मर गई। बस के सभी यात्री जमीला के इस दर्द को देखकर परेशान हो उठे। शौकत भी बेबस हो गया। यह जमीला का सातवां मास था चण्डीगढ़ में उसने डाक्टर से पूरी जांच करवाई थी। सब कुछ ठीक था। आष्टी उसके साथ जाती। डाक्टर द्वारा दी गई दवाई खिलाने के लिए ध्यान रखती। अपने पास बिठाकर उसे अधिक परिश्रम करने से रोकती। उसकी चीख सुनकर आयशा उसके साथ लिपटकर रोके हुए कहने लगी-'अम्मी जान ! वतन की आण्टी ने मुझे कहा है कि तुम्हें कुछ नहीं होगा, फिर यह दर्द क्यों? चुप करो ना अम्मा, पर उसका दर्द बढ़ता ही गया। सभी यात्री कहने लगे-अब हम श्रीनगर पहुंचने ही वाले हैं, वहीं इलाज होगा। आयशा को वे लोग तसल्ली देते रहे और वह अपनी मां के साथ चिपटी रही। जमीला को भी झपकी-सी लग गई। किसने फैलाया यह आतंक? आयशा को यह बात सता रही थी कि आण्टी यदि उनके साथ होती तो उसकी अम्मी जान को कोई कष्ट न होता। वह सोचने लगी कि आण्टी प्रवासी क्यों बनी ? मुझे अकेली छोड़ सकती है? कभी नहीं। वह अवश्य अपने वतन वापस लौटेगी। आतंक कब तक चलेगा? खुदा जरूर इंसाफ करेगा। आतंक मलियामेट हो जाएगा। फिर मैं उसे कैसे भूल सकती हूँ। वह तो मेरे रोम-रोम में बसी हुई है। मैं अगर यह बात अपनी सहेलियों को बताऊंगी कदाचित् वे मेरा मजाक उड़ा दें। उन्हें क्या पता कि सच्ची मोहब्बत क्या होती है। सच्चे प्यार को कभी कोई भूल नहीं सकता। वह भुलाए जाने की चीज है क्या? मैं अब उसके आने का इंतजार कयामत तक करूंगी।
आयशा के हृदय में वतन की आण्टी ने अपना एक गहरा स्थान बना लिया था। उसने अपने दिल की गहराइयों में उसे मिठाया था। जमीला को फिर दर्द सताने लगा। आयशा ने उसे बोतल से पानी पिलाया और एक दवाई की टेबलेट दी। उसे थोड़ा-सा आराम आ गया।
आयशा ने अब एक प्रश्न शौकत की तरफ फेंकते हुए कहा-'अब्बू वतन की आण्टी प्रवासी क्यों बनी? वह उस समय कश्मीर आने की बात टाल क्यों गई ? आतंकवादियों द्वारा दहशत फैलाने पर ही वह यहां से अपने घर को छोड़कर चली गई होगी। 'बेचारे शौकत के सामने यह सुनकर गहरा सन्नाटा छा गया। उसे याद आया कि आततायी ने उसके अब्बू पर भी गोली चलाकर उनके सामने ही उसे मौत के घाट उतारा था। उस समय वे उसे सामने मरते देखकर भी बचा नहीं पाए थे। इस सर्वभक्षी आग में वे घर में ही गुम हो गए थे। उसका दोष यही था कि उसने उस पीड़ित को बचाने का प्रयास किया था जिसपर मुखबिर होने का दोषारोपण किया गया था। इन निर्मम हत्याओं को देखकर उसका हृदय दहल गया था। आदमी के हाथों आदमी की मौत देखकर वह कांप उठा था। उसने परवरदिगार से तभी दुआ की थी कि पीर पैगम्बर और ऋषियों का यह वतन पुनः आदर्श दीप बने आयशा की तरफ संबोधित होकर उसने कहा था-'बेटी, यह सब घृणा के अंकुर का परिणाम है- प्रवासी बनना, वतन छोड़ना और आतंक का माहौल पैदा होना, इसे जड़ से उखाड़ फेंकने से ही यहां एक सुहावने सवेरे की शुरुआत हो सकती है। अब वह मंजिल दूर नहीं लगती।'
आयशा को अब्बू के इस कथन से कुछ तसल्ली मिली। अब तक बस श्रीनगर पहुंचकर टूरिस्ट आफिस में प्रवेश कर चुकी थी। टूरिस्ट ऑफिस चारों तरफ से घिरा दो मंजिला मकान है जहां दफ्तर है और यात्रियों के ठहरने के प्रकोष्ठ हैं। एक तरफ कश्मीरी हस्तकला की प्रदर्शनी है और बीच प्रांगण में आने-जाने वाली सभी बसों के आने जाने तथा रुकने-ठहरने का प्रबंध है। यात्री अभी बस की छत से सामान उतार ही रहे थे कि गोलियों के धनाधन चलने की आवाज सुनाई दी। शौकत का परिवार और अन्य यात्री इस भयानक आवाज को सुनकर दहल उठे। खबर फैल गई कि आतंकवादियों ने सुरक्षाकर्मियों पर एक राकेट फेंक दिया है। कई हत्याएं हुई हैं और कई घर धराशायी हो गए हैं। अब सूर्यास्त का छद्मवेश अपने पीछे अन्धकार फैला रहा था।
सभी यात्री दुविधा में पड़ गए कि जाएं तो कहां जाएं। सब के चेहरे पर निराशा के भाव रेंगने लगे। यह आश टूट गई कि वे अपने घर पहुंच जाएंगे और रिश्तेदारों से मिल पाएंगे, सभी चकित-भ्रमित होकर मायूसी से एक-दूसरे से पूछने लगे कि अब क्या होगा?
आयशा अब तक सब कुछ देख-सुन रही थी। वतन की आण्टी का स्मरण करके उसे उसकी बात समझ में आ रही थी कि आदमी जब आदमी का लहू बहाता है तब कोई भी घर में सुरक्षित नहीं रह सकता। उसी तरह रात-भर सभी यात्रियों को वहीं भीतर ही रहना पड़ा। किसी में इतना साहस न हुआ कि वह कर्फ्यू में बाहर आ जाए।
आधी रात का समय था कि जमीला की प्रसव पीड़ा बढ़ गई। उस वेदनाग्रस्त नारी को अपनी जिंदगी सर्द होने वाली-सी नजर आने लगी। उसे वतन की वह आण्टी याद आई जो उसे पल-पल मानसिक संतोष और सान्तवना देती रहती थी। जिसने उसको कभी भी अकेली उपचार के लिए नहीं भेजा था और स्वयं साथ चली जाती थी। दर्द से कराहती आयशा कहने लगी-अम्मा आण्टी साथ होती तो यह कष्ट तुम्हें कभी न भोगना पड़ता। क्यों नहीं कि जिद्द आने की? और जमीला की पीड़ा बढ़ रही थी। सांत्वना देने वाला कोई नहीं था वहां। उसे दूसरे कमरे में ले जाया गया।
आयशा से अम्मा की यह हालत देखी नहीं गई। वह फूट-फूटकर रोने लगी। अपने अब्बू का दामन पकड़कर उसने मिन्नत करते हुए कहा-'अब क्या होगा, डाक्टर को बुलाओ ना'। 'कर्फ्यू खुलते ही सवेरे घर पहुंचने पर सब कुछ होगा बेटी! हमें अल्लाह पर पूरा भरोसा करना 'पड़ेगा'-शौकत ने दिलासा देते हुए आयशा को समझा दिया।
सवेरा हुए लेकिन कर्फ्यू न खुला। आतंकवादियों ने अब एक पुल को भी रॉकेट से उड़ा दिया था। उन्होंने एक सरकारी पदाधिकारी का अपहरण भी किया था जिसकी खोज जारी थी। शौकत ने अपने ही घर में स्वयं को गुम होते हुए देखा। इस जीवित मृत्यु से वह विह्वल हो उठा। उसे मानवता के चेहरे पर कालिख के धब्बे नजर आए। सुबकती आहें भरकर जब उसका हृदय टूट गया उसके मुख से अनायास ही निकल पड़ा-'खुदा यह कैसा कहर!'
खुदा ने उसकी पुकार सुनी और तभी एक जीप टूरिस्ट आफिस के द्वार पर रुक गई। उसमें बैठे सुरक्षाकर्मियों ने तड़पती जमीला को तत्काल उसमें बिठा दिया। शौकत और आयशा साथ-साथ बैठे। जीप लल्लद्यद अस्पताल के सामने आकर रुक गई। डाक्टर ने जमीला की जांच की और उसने एक सुन्दर चांद जैसे बेटे को जन्म दिया। सबके मुख पर आह्लाद की रेखाएं उभर आईं। सभी खुश थे।
आयशा ने अपने भाई को पुचकारते हुए कहा- 'अब जरूर तुम्हें देखने के लिए वतन की आण्टी कश्मीर आएगी। उसने मुझे तभी कहा था बेटी ! तुम्हारा भाई आने वाला है।'
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साभार:- डॉ. जियालाल हंडू एवं मार्च 1996 कोशुर समाचार