तब इन बातों का अर्थ नहीं समझा था

तब इन बातों का अर्थ नहीं समझा था


तब इन बातों का अर्थ नहीं समझा था

Prathvi Nath Mudup पृथ्वीनाथ मधुप

न जाने क्यों अचानक बीती बातें स्मरण आने लगी हैं। स्मरण हो आई हैं इसलिए इन्हें, पहले की तरह, अपने मन में ही दबा के रखना ठीक नहीं, इन्हें आपको भी सुनाना चाहता हूँ।

बचपन में माताजी, पिताजी या कोई अन्य पूज्य-जन जब मुझे दुकान से कोई सामान खरीदने भेजते, तो दुकान तक पहुंचने या दुकान से सामान खरीदकर घर पहुंचने से पहले बहुत ही जानलेवा परिस्थिति से गुजरना पड़ता था। हमारे घर (कश्मीर में) से दुकान कोई आध-पौन किलोमीटर की दूरी पर रही होगी। दुकानदार कश्मीर घाटी के बहुसंख्यक समुदाय से था और उसके दुकान के आसपास भी इसी समुदाय के लोग रहते थे (उल्लेखनीय है कि कश्मीर में मुस्लिम बहुसंख्यक हैं और हिंदू अल्पसंख्यक) हमारे घर और दुकान के रास्ते के किनारे, दुकान से लगभग 40-50 मीटर की दूरी पर एक खुला मैदान था जहां अखरोट के सघन वृक्ष लगे थे। इस मैदान में प्रायः बहुसंख्यक समुदाय से संबंध रखने वाले बच्चे सुबह से शाम तक खेलते रहते थे। दुकान पर जाते या दुकान से आते समय जब मैं मैदान के बिल्कुल निकट पहुंचता तो ये बच्चे अपना-अपना खेल छोड़कर मुझे घेर लेते। कोई मुक्का मारता तो कोई धक्का, कोई कपड़े खींचता तो कोई झापड़ मारता और कोई मेरी जेब से पैसे छीनने या हाथों से सौदा छीनने की कोशिश करता। मैं अकेला और वे इतने सारे जब बेहाल होकर मेरी आंखें भर आतीं तब वे बहुत ही खुश हो जाते और तालियां बजा-बजाकर मेरे इर्द-गिर्द उछल-कूद करते हुए समवेत में गा उठते-

बटॅुकट्या बटुॅकट्या रटॅुनावथ

हटि तलॅु यो´िहन च़टुॅनावथ

हून्य सुॅज़ मुॅत्रुॅहन चावॅुनावथ

कलिमय मोहम्मद परूॅनावथ।

(अर्थात् अरे हिंदू लड़के! तुम्हें पकड़वा दूंगा। गले में पड़ा यज्ञोपवीत तुमसे ही कटवा दूंगा। कुत्ते का मूत्र पिलवा दूंगा। मुहम्मद का कलमा पढ़ा दूंगा।)

बचपन था इन हरकतों का मतलब क्या है, कभी गंभीरता से इस पर विचार नहीं किया।

कई बार ऐसा भी हुआ कि मैं इन बच्चों से घिरा हूं और हमारा कोई पड़ोसी (इस बस्ती में हिंदुओं के मात्र तीन ही घर थे) मेरी उक्त दुर्दशा होते समय वहां से गुजरा; मुझे बेबस देख मेरी तरफ आया। उन बच्चों को हल्की सी डांट लगाई और मेरा हाथ पकड़ कर दुकान या घर तक ले गया और मामला आया गया हो गया। आज सोचता हूं कि मेरे बुजुर्गों ने भी इन बातों को छोटी और तुच्छ समझकर इन्हें गंभीरता से कभी नहीं लिया या इन बातों का बिल्कुल ही अर्थ नहीं समझा।

घृणित मानसिकता

उक्त प्रकार की बोली मात्र कश्मीरी बहुसंख्यक समुदाय के बच्चे या किशोर ही नहीं बोला करते थे, बल्कि वयस्क, समझदार और सुलझे हुए कहे जाने वाले व्यक्ति भी इस तरह की बोली बोलने से कोई परहेज नहीं करते थे। तनिक सोचने की बात है- क्या उक्त पद्य वयस्क और समझदार व्यक्तियों के दिमाग की उपज नहीं थी? क्या परंपरा पीढ़ी से पीढ़ी तक नहीं आती? बहुसंख्यक समुदाय का लगभग हर व्यक्ति समय-समय पर अल्पसंख्यकों के किसी भी सदस्य/सदस्या पर कटाक्ष करते हुए 'दालिबटु/दालि बटन्य' (अर्थात् दाल खाने वाला हिंदू/दाल खाने वाली हिंदू महिला) कहने से कभी नहीं चूकते। इसी तरह कश्मीरी हिंदू को चिढ़ाने एवं उसके मनोबल को धक्का देने की गरज से 'दालि गडुवु', 'दालि ड्रेस' या 'दाल्या' के नाम से भी पुकारा जाता रहा है। इस सबके पीछे कौन-सी मानसिकता थी, वह स्वतः स्पष्ट है। इतना ही नहीं, कश्मीर घाटी के बहुसंख्यक समुदाय के बड़े-बड़े नेता (चाहे वे सरकार में रहे हों या प्रतिपक्ष में) व्यंग्यात्मक लहजे में राष्ट्रीय स्तर तक के नेताओं को 'दालि कटोरूँ' और 'दूति परसाद' (जिसका अर्थ क्रमशः दाल का कटोरा तथा धोती प्रसाद यानी धोती बांधने वाला कहते रहे हैं। इसका व्यंग्यार्थ क्या उसका अनुमान लगाना कोई मुश्किल काम नहीं।

अपने देश के पर्यटक, जो देश के इस भाग, यानी कश्मीर घाटी में घूमने के लिए आते थे, उन्हें भी बख्शा नहीं जाता था। इन पर्यटकों को 'दालि विजिटर' या 'छोलु विलिटर' (दाल खाने वाले पर्यटक या छोले खाने वाले पर्यटक यानी बेकार लोग) कहा जाता रहा है।

कश्मीर घाटी के अल्पसंख्यक समुदाय का कोई पुरुष या महिला जब किसी कुंजड़े से सब्जी खरीदते समय सड़ी गली या पिथराई सूखी सब्जी अलग कर अच्छी और ताज़ा सब्जी चुनती, तो कुंजड़ा फौरन ऐसा करने से रोकता और जल-भुनकर, आक्रोश-भरे लहजे और बहुत ही बदतमीजी के साथ कहता- 'गछू दालि बटा दाल ख्यू, सब्जी माकर म्वरदार' [ अर्थात- अरे दाल खाने वाले कश्मीरी हिंदू जाकर दाल खा, सब्जी मुरदार (जूठी) न कर] कहने का तात्पर्य यह कि पूरी-पूरी कीमत चुकाने पर भी कश्मीरी हिंदू को सही और पूरा सामान उठाने का भी अधिकार नहीं था।

जब कोई कश्मीरी हिंदू महिला अकेले चल रही होती तो बहुसंख्यक समुदाय के सदस्य इस अवसर का फायदा उठाते हुए महिला पर फबती कसने के अंदाज़ में ऊंची आवाज़ में समवेत स्वर में कह उठते

बटॅनी-बटॅनी द्वदुयय मस,

अथ क्यहे क्वोरॅथम दालि गडुॅवस।

(यानी-री कश्मीरी हिंदू महिला। तुम्हारे केश जल जाएं, इस दाल भरे लौटे का यह क्या किया?)

यह बात सर्वविदित है कि महिला का सबसे प्यारा आभूषण उसके केश ही होते हैं। उन्हीं केशों के विषय में ऐसे शरारतपूर्ण और बदतमीजी से भरे वचन कहे जाएं, तो इसका मतलब क्या है? सोचता है कितना अपमान सहते थे हम कितनी सहनशक्ति थी हममें !!

कोई कश्मीरी हिंदू यदि स्वयं कोई शारीरिक श्रम करता और बहुसंख्यक समुदाय के लोग देख रहे होते, तो वे उसे संबोधित करते हुए फौरन कह उठते यिना बटा दाल व्यसरी। श्याश् ष्थवू बटा दाल हा व्यसरीष्

 (अरे हिंदू कहीं दाल न निकल जाए या रहने दे दाल निकल आएगी)

पिछले कई दशकों, से घाटी की गलियों एवं सड़कों पर यह नारा कश्मीर के बहुसंख्यक समुदाय की ओर से दिया जाता रहा है कि

असि गछि पॉकिस्तान

बटव वरॉयी बटुॅन्यवसान

(अर्थात्-कश्मीर के कट्टरपंथी मुसलमान घाटी को ऐसा पाकिस्तान बनाएंगे, जिसमें कश्मीरी पंडितों के बिना उनका महिला वर्ग शामिल होगा)

साभार:- पृथ्वीनाथ मधुप एवं मार्च 1996 कोशुर समाचार