पलायन का दर्द
चित्त भानु नागरी
रात के खामोश अंधेरों में,
चमकते तारों से सजी, चमकते चांद की,
वो मदमाती बारात ।
सब के बीच, मैं अकेला, मेरे वतन में जैसे,
खून की सुहागरात।
चिनार के पत्तों के बीच, शरमाते, सकुचाते,
हवा के झोंके,
आभास देते हैं, खामोश चांदनी रात में,
उस मर्मभेदी चीख का ॥
रंगों में होली खेलते, जल के रंगीले प्राणी,
याद दिलाते हैं, खून में डूबे मेरे साथी,
शहनाईयां बजाते हवा के थपेड़े, वहां का गीतकार
और मेरी गली में रोता, बिलखता छाती पीटता,
भटकता हुआ वो पागल, उसके वो आंसू,
मृत्यु तो नहीं, पर मृत्यु के संदेशवाहक अवश्य हैं ।
इसी बीच मेरी आंखों में बसा, वो अनजाना डर,
मुझे हर रात, तलवार की धार और
बंदूक की नोक से, डराता है,
मैं रोता भागता, छिपता, छिपाता,
अपना घर छोड़ आ जाता हूं यहां,
अपने उसी पुराने साथी के साथ,
वापस जाने की उम्मीद में ॥
अस्वीकरण:
उपरोक्त लेख में व्यक्त विचार अभिजीत चक्रवर्ती के व्यक्तिगत विचार हैं और कश्मीरीभट्टा.इन उपरोक्त लेख में व्यक्त विचारों के लिए जिम्मेदार नहीं है।
साभार:- चित्त भानु नागरी एवं मार्च 1996 कोशुर समाचार