कश्मीरी कविता की नई कौंपलें

कश्मीरी कविता की नई कौंपलें



           -अग्निशेखर

परसों एक फोन आया।

"सर,मैंने कुछ बिलकुल नए विस्थापित कवियों को इकट्ठा किया है जो कश्मीरी भाषा में लिखते हैं .." फोन पर दूसरी ओर से कंवल पेशन बोल रहा था।

"सर, मैंने उनके लिए एक कार्यक्रम रखा है शनिवार को। और आपको उसमें आना है।"
उसके आग्रह में अधिकार भावना थी। मुझे अच्छा लगा।

 "ज़रूर आऊँगा ..यह तो बहुत अच्छी बात है।" मैं और क्या कह सकता था। वह आश्वस्त हुआ।

"सर,आपके आने से ऐसे बच्चों का हौसला बढेगा।मैं और भी लोगों को जुटाऊंगा।"उसने कार्यक्रम का समय और स्थान बताकर फोन रख दिया।

   कंवल पेशन एक उदीयमान सक्रिय संस्कृतिकर्मी है। रंगकर्मी भी।

 आज सच में उसने 'संस्कृति भवन' में  एक समा बाँधा। सात नवोदित कवि और कवयित्रियों की भागीदारी थीं।

  एक ग्यारह वर्षीय गायिका  पुण्या कौल और तेरह बरस के गायक पवित्र कौल ने तबले की
 संगत पर हारमोनियम बजाकर मंगलाचरण गाया।
 उसके बाद एक एक कर नवोदित कवि आकर अपनी कच्ची पक्की कश्मीरी रचनाएँ सुनाकर श्रोताओं को आह्लादित कर गये।
 
 ये बच्चे1990 में कश्मीर से हुए हमारे सामूहिक विस्थापन के बाद इधर जम्मू के शरणार्थी कैंपों में जन्मी और पली बढी पीढ़ी से आए कवि हैं ।

    इन्होंने अपने अपने माँ  बाप की बेबसी देखी है।अपमानित जीवन देखा है। अनदेखी देखी है।

  इन्होंने अपनी जन्मभूमि सिर्फ टीवी चैनलों पर देखी है। 

 इन्होंने अपने गाँवों की, खेतों की,पेड़ और पहाड़ों की,मौसमों की,पर्व और त्योहारों की कहानियाँ सुनी हैं ।

  और सुनी हैं लोमहर्षक कथाएँ अपने परिजनों की हत्याओं की,अपहरणों और बलात्कारों की,आगज़नी की,
जलावतनी की।

  अनदेखी की।

 'संस्कृति भवन' में बच्चे कविताएँ पढ़ें रहे थे।

उनकी कविताओं में प्रश्न थे। जिज्ञासाएं थीं ।कश्मीर की कल्पनाएं थीं ।माँ बाप के संघर्ष थे। शरणार्थी जीवन जीवन रहे दादा दादी या नाना नानियों के  हृदय विदारक प्रसंग थे।
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   कवि जिन्होंने कविताएँ सुनाईं -
  -आयुष्मान कौल
  -ओशीन तिक्कू ( कवयित्री)
  -शिव भट्ट 
  -त्रिवेणी सिद्धांत(कवयित्री)
  - रोहित पंड़ित (कवयित्री)
  -जतिन पंड़ित

सभागार में कश्