आम का सेहरा

आम का सेहरा

"आम का सेहरा"

जो आम मैं है वो लब ए शीरीं मैं नहीं रस,
रेशों मैं हैं जो शेख़ की दाढ़ी से मुक़द्दस,

आते हैं नज़र आम, तो जाते हैं बदन कस,
लंगड़े भी चले जाते हैं, खाने को बनारस,

होटों पे हसीनों के जो, अमरस का मज़ा है,
ये फल किसी आशिक़ की, मोहब्बत का सिला है

आमद से दसहरी की है, मंडी में दस्हेरा,
हर आम नज़र आता है, माशूक़ का चेहरा,

एक रंग में हल्का है, तो एक रंग में गहरा,
कह डाला क़सीदे के एवज़, आम का सेहरा,

ख़ालिक़ को है मक़सूद, के मख़्लूक़ मज़ा ले,
वो चीज़ बना दी है के बुड्ढा भी चबा ले,

फल कोई ज़माने में नहीं, आम से बेहतर,
करता है सना आम की, ग़ालिब सा सुख़नवर,

इक़बाल का एक शेर, क़सीदे के बराबर,
छिलकों पा भिनक लेते हैं , साग़र से फटीचर,

वो लोग जो आमों का मज़ा, पाए हुए हैं,
बौर आने से पहले ही, बौराए हुए हैं,

नफ़रत है जिसे आम से वो शख़्स है बीमार,
लेते है शकर आम से अक्सर लब ओ रुख़सार,

आमों की बनावट में है, मुज़मर तेरा दीदार,
बाज़ू वो दसहरी से, वो केरी से लब ए यार,

हैं जाम ओ सुबू ख़ुम कहाँ आँखों से मुशाबे,
आँखें तो हैं बस आम की फांकों से मुशाबे,

क्या बात है आमों की हों देसी या बिदेसी,
सुर्ख़े हों सरौली हों की तुख़्मी हों की क़लमी,

चौसे हों सफ़ैदे हों की खजरी हों की फ़जरी,
एक तरफ़ा क़यामत है मगर आम दसहरी !

फ़िरदौस में गंदुम के एवज़ आम जो खाते,
आदम कभी जन्नत से निकाले नहीं जाते !!

Poet: Saghar Khayami