ऊंट की पीठ पर अतीत उर्फ सिल्क रूट के शहंशाह


ऊंट की पीठ पर अतीत उर्फ सिल्क रूट के शहंशाह

डा राहुल मिश्र

प्राध्यापक, हिंदी (मानद विश्वविद्याल लेह-लद्दाख (जम्मू व कश्मीर)

 

"गुरु जी! यह ऊंट मनाली नहीं जा सकता है। वहा ठंडक हो तो बनी रहे। इसे जो खाने को चाहिए, वह तो मनाली में मिलेगा नहीं यहां की जैसी ठंडक भी नहीं । चार-पांच साल पहले कुछ लोगों ने इस ऊंट की नस्ल को मनाली तक पहुंचाने की कोशिश की थी। इसके लिए वे ऊंटों के जोड़े लेकर गए लेकिन मनाली पहुंचते ही ऊट जिंदा नहीं रह पाए।

इतना सुनने के बाद मेरे मन में एक प्रश्न उठना स्वाभाविक ही था कि आखिर वे लोग इस ऊंट को मनानी क्यों ले जाना चाहते थे? मैं भी इस प्रश्न को उसी तरह अपने अंदर रोक नहीं सका, जिस तरह आप नहीं रोक पा रहे थ अभी एक क्षण पहले । मैंने तुरंत ही अपना सवाल उनके सामने रख दिया।

वे बोले-"टूरिज्म, टूरिज्म के डेजर्ट सफारी में इन ऊंटों का बड़ा रोल है।" उनके इस उत्तर ने मेरे सामने चित्र को बहुत कुछ स्पष्ट कर दिया। पिछले दिन जब हम दुनिया के सबसे ऊंचे रास्ते को खरदुंग-ला में पार कर रहे थे, तब वहां तमाम पर्यटक फोटो खिंचाने में व्यस्त थे। लेह से नुबरा घाटी की ओर जाने वाले रास्ते में खरदुग-ला पड़ता है, जिसकी ऊंचाई समुद्रतल से लगभग 18,380 फीट है। लद्दाख आने वाले पर्यटकों के लिए यह विशेष आकर्षण का केंद्र होता है।

खरदुंग-ला की कॉफी शॉप' से लगाकर शिव मंदिर तक तमाम पर्यटकों की चहल पहल थी। कुछ खरदुंग की ऊंची चोटी पर चढ़कर फोटो खिचा रहे थे और कुछ चुपचाप बैठे प्रकृति के इस सौंदर्य का रसपान कर रहे थे। बातचीत से लग रहा था कि उन पर्यटकों में बड़ी संख्या महाराष्ट्र गुजरात और दक्षिण भारत के दूसरे हिस्से के लोगों की है। जिज्ञासावश किनारे बैठे एक मराठी पर्यटक से मैंने पूछा कि आपको यहां के पर्यटन में क्या देखना सबसे ज्यादा रोमांचित करता है। उसका जवाब था कि पहले तो बर्फ और फिर दो कूबड़ वाले ऊट की सवारी का रोमांच ही उसे यहां तक ले आया है। उस मराठी पर्यटक के उत्तर और आज की बातचीत के तालमेल को बिठाते हुए मेरे सामने स्पष्ट हो गया कि मनाली में पर्यटकों को लद्दाख की फीलिंग देते हुए कमाई करने के उद्देश्य से यारकदी ऊंटों को यहां से ले जाने की कोशिश की गई होगी। इन्हीं का जिक्र नोरबू साहब मुझसे कर रहे थे।

सन 2017 के अगस्त महीने में दूसरी बार मेरा नुबरा घाटी में जाना हुआ था। इससे पहले शायद 2011 में नुबरा जाना हुआ था। उस समय दो कूबड़ वाले ऊंटों के बारे में केवल सुना था, देखने का मौका नहीं मिल पाया था। इस बार पूरी तरह से तय कर लिया था कि दो कूबड़ वाले ऊटों के दर्शन जरूर करने हैं। खासतौर से इस कारण भी कि देश और दुनिया के कोने कोने से लोग तमाम जहमन उठाकर नुबरा घाटी आते हैं और हम लद्दाख में रहते हुए भी अगर लद्दाख की इस प्रसिद्धि से साक्षात्कार नहीं कर पाए तो शायद समय भी हमें माफ नहीं कर पाएगा। यही जोश और जज्बा था कि जिसके बूते हम यारकंदी ऊंटों के सामने खड़े थे इनके बारे में बहुत कुछ पढ़ा भी था, मगर यहां नोरबू साहब से जो जानकारी मिल रही थी, वह शायद अब तक किताबों या विकिपीडिया जैसी अंतर्जालिक तकनीकों में उपलब्ध नही हो पाई थी। मेरे विस्मित हो जाने का बड़ा कारण भी यही था। दरअसल नोरबू साहब के पास बीस यारकंदी ऊँट थे जिनमें पर्यटकों को सैर कराने का व्यवसाय वे करते थे मेरे एक शिष्य के पिता होने के नाते नोरबू साहब ने बड़ी आत्मीयता के साथ मुझसे मुलाकात की थी। मैं वहां पहुंचने वाला हूं, यह सूचना मेरे शिष्य ने उन्हें दे रखी थी।

जब नोरबू साहब ने मुझे यारकदी ऊंटों के बारे में बताना शुरू किया, तब अतीत की बातें परत-दर-परत ऐसी खुलती चली गई जिन्होंने विचारों को पख दे दिए। नोरबू साहब ने यारकदी ऊंटों की खान पान की आदतों से लगाकर उनके रहने के तौर तरीकों तक के बारे में विस्तार से बताया। नोरबू साहब ने रेशम मार्ग, यानि सिल्क रूट में यारकंदी ऊंटों के योगदान भी इतने विस्तार से बताया कि कालिदास और विद्योत्तमा के जीवन में ऊंट का योगदान भी बरबस ही मेरे विचारों में कौंध पड़ा। विद्वान आचार्यों ने विदुषी विद्योत्तमा को मजा चखाने के लिए बुद्धिहीन कालिदास के साथ धोखे से विवाह करा दिया। भला हो ऊटी का जो वे एक दिन विद्योत्तमा की हवेली के बाहर से गुजर पड़े और मूढ़ कालिदास उन्हें उट्र उट्र कहकर चिल्लाने लगे। तब कहीं जाकर विद्योत्तमा को पता लगा कि मेरे पतिदेव तो निहायत मूढ-मग्ज हैं। तब क्या था उपचार शुरू हो गया और इस तरह 'उपमा कालिदासस्य' अर्थात् अपनी विलक्षण-अद्भुत उपमाओं के लिए संस्कृत साहित्य के उज्जवल नक्षत्र के समान कालिदास का प्राकटय हुआ।

विद्योत्तमा और कालिदास के जीवन को बदलने वाले ऊट बेशक यारकद वाले नहीं थे मगर ऊट किस तरह जीवन बदल देते हैं, अपनी करवट से ऊंट कैसे हालात बदल देते हैं यह जरूर स्पष्ट था। यारकंदी ऊंटों ने भी अनेक लोगों के जीवन को बदला है। प्राचीनकाल ही नहीं मध्यकाल में और फिर रेशम मार्ग के बंद हो जाने के बाद आज के समय में 'डेजर्ट सफारी के रूप में यारकदी ऊटों के योगदान को देखा जा सकता है। चीन के रेशम से अपना नाम पाने वाला पूरा रेशम मार्ग लगभग दस हजार किलोमीटर का होगा, मगर आज रेशम मार्ग के उत्तरी छोर को ही प्रमुख रूप से जाना जाता है। उत्तरी रेशम मार्ग या सिल्क रूट लगभग 6500 किलोमीटर लंबा था। इसका संबंध मुख्य रूप से हिमालय की कराकोरम श्रेणी से रहा है। यह चीन की प्राचीन राजधानी शिआन से पश्चिम की ओर चलते हुए टकलामकान रेगिस्तान से निकलकर मध्य एशिया के बैक्ट्रिया और पार्शिया राज्यों तक जाता था। इसके आगे का रास्ता बढ़कर ईरान और रोम तक पहुचता था। टकलामकान, जैसा कि अपने नाम से ही स्पष्ट देता है कि मध्य एशिया का ऐसा रेगिस्तान था जो एकदम उजाड़ और डरावना था। पुराने जमाने में ऐसा माना जाता था कि जो टकलामकान रेगिस्तान में घुस जाता है वह बाहर नहीं आ पाता है। इसी डर के कारण रेशम मार्ग के व्यापारी इस रेगिस्तान को उत्तर या दक्षिण दिशा से पार किया करते थे। दोनों दिशाओं से आने वाले रास्ते काश्गर के नखलिस्तान में मिलते थे और फिर आगे कराकोरम श्रेणी की तरफ चल पड़ते थे। शायद इसी के कारण किसी गंजे व्यक्ति को टकला कहा जाना और किसी वीरान उजाड़ जगह पर अचानक रौनक बिखर जाने पर उसे नखलिस्तान कहा जाना प्रचलन में आया होगा। रेशम मार्ग केवल व्यापार का ही रास्ता नहीं था वरन इसमें अध्यात्म धर्म, दर्शन, संस्कृति, वैचारिकता भी अपनी यात्राएं करती थीं। जिस तरह रेशम मार्ग के व्यापारी थोड़ी थोड़ी दूरी पर अपने सामानों की अदला-बदली करके व्यापार को चलाते थे उसी तरह सास्कृतिक गतिविधियां भी आदान-प्रदान के माध्यम से चलती रहती थीं।

टकलामकान के बर्फीले रेगिस्तान से लगाकर उसके आगे मध्य एशिया के सर्द बर्फीले इलाकों के लिए यारकदी ऊटों से बेहतर सवारी कोई हो ही नही सकती थी। इसी कारण 6500 किलोमीटर के इस लंबे रास्ते के अतीत की चर्चा भी यारकंदी ऊटों के बिना पूरी नहीं हो सकती है। यारकद या बैक्ट्रिया में पाए जाने वाले दो कूबड़ वाले ऊंटों को क्षेत्र के हिसाब से यारकंदी या बैक्ट्रियन ऊंट कहा जाता है ये थार के रेगिस्तान में मिलने वाले ऊंटों से कम लंबे होते हैं और इनके दो कूबड़ होते हैं। इस कारण इन्हें सामान्य रूप से दो कूबड़ वाले ऊट के तौर पर जाना जाता है। इनके शरीर में बाल भी बहुत होते हैं जो इन्हें भीषण सर्दी और बर्फीली हवाओं से बचाते हैं।

मेरे मन में तमाम विचार एक साथ चल रहे थे। बर्फीले रेगिस्तान को अपनी पदचापों से जीतने के लिए मनुष्य ने कैसे इन यारकदी ऊंटों के अपना हमसफर बना लिया और इनकी पीठ पर लदकर वस्तुओं के साथ ही संस्कृति-विचार ब जीवन के रंग-ढंग भी भूगोल की सीमाओं को कैसे तोड़ देते हैं, यह सोचना ही अपने आप में बहुत रोमांचकारी है। लद्दाख अंचल में नानवाई की दुकानें चलाने वाले यारकंदी व्यववसायियों के वंशजों को अपने पूर्वजों का वह सफर आज शायद ही याद होगा जो कभी इन यारकंदी ऊंटों की पीठ पर बैठकर तय किया गया होगा समोसा खाते समय शायद ही याद होगा कि आज भारत के सर्वाधिक प्रिय और देशव्यापी समोसा ने इन्हीं यारकंदी ऊंटों में बैठकर भारत वर्ष तक का सफर किया होगा। समोसे की दुकानें तो देश भर में मिल जाएंगी मगर नानवाई की दुकानें लद्दाख की अपनी निजी पहचान हैं। नानवाई तंदूर में रोटिया बनाते हैं, जिन्हें लद्दाखी में तागी कहा जाता है। तंदूरी रोटी के रूप में होशियारपुर के व्यापारियों के साथ पंजाब, और फिर देश के दूसरे हिस्सों में पहुंचने वाली लद्दाखी तागी भी यारकद की सौगात है।

मेरे विचारों की कड़ियों में दखल देते हुए जब नोरबू साहब ने यारकंदी ऊंटों की खान पान की आदतों के बारे में बताया तो एकबारगी यह भी महसूस हुआ कि यारकंदी ऊटों से ज्यादा धैर्यवान और सहनशील जीव धरती पर खोजना बहुत कठिन है। जरा से पानी या थोड़ी सी बर्फ से अपने शरीर में जल का स्तर बनाए रखकर और कंटीली झाड़ियों को खाकर अपना पेट भर लेने वाले ऊट मानव के लिए आत्मबलिदान ही तो करते रहे हैं. शायद। उनकी पीठ पर चमड़े के बड़े-बड़े थैलों में भरा पानी, तदूर में बनी नानवाई की रोटियों के बंडल और रेगिस्तान के सफर में चटखारेदार भोजन की कमी को पूरा करने वाले समोसेनुमा व्यंजन से भरे पात्रों को लादकर रेशक मार्ग में चलने वाले ऊंटों के हिस्से में लेह बेरी जैसी कंटीली झाडिया ही आती रही होंगी

यारकंदी ऊंट छः मन यानि लगभग ढाई क्विटल तक भार उठा सकते हैं। इनके लिए समतल रेगिस्तान में चलना तो आसान होता है, मगर घाटियों की चढ़ाई-उतराई और बर्फीली चट्टानों पर चलना कठिन होता है। नोरबू साहब के द्वारा दी गई इस जानकारी के बाद महसूस हुआ कि रेशम मार्ग में पड़ने वाले लद्दाख के पनामिग गांव से आगे तुरतुग-बोगदंग आदि बल्तिस्तानी गांवों की तरफ चलने पर शयोग नदी के एक ओर कराकोरम और दूसरी ओर लद्दाख रेंज के पहाड़ों की दुर्गम ऊचाईयों पर सिल्क रूट के ध्वंसावशेष पतली सी लकीरों की तरह दिखाई पड़ते हैं। इनमें यातायात के अनुशासन को देखते हुए आने और जाने के रास्ते भी बाकायदा अलग अलग समझ में आते हैं। नोरबू साहब से ही पता लगा कि याक, घोड़े और टटू शटल सेवा की तरह सिल्क रूट में प्रयुक्त होते थे। हिमनदों और विकराल दरों को पार कराने में जहां याक विश्वसनीय होते थे, वहीं ऊंचाई पर चढ़ने और तेजी के साथ सामान की ढुलाई करने में घोड़ों और टट्टुओं का उपयोग किया जाता था। इस तरह अलग अलग स्थानों पर किराए से इन भारवाहकों को उपलब्ध कराने वाले किरायाकशो की बस्तिया भी होती थीं।

नोरबू साहब ने बड़े गर्व के साथ बताया कि सिल्क रूट में चलने वाले कारबा के कारण नुबरा घाटी गुलजार रहती थी उन दिनों नुबरा घाटी लेह के आसपास के इलाकों से कहीं ज्यादा संपन्न थी। हमारे पुरखों के लिए समरकंद, बुखारा दुर्गम नहीं थे। पनामा गांव में उस समय मध्य एशियाई 1. व्यापारियों के लिए बेहतर शरणगाह होती थी। यह एक तिराहा जैसा भी था जहां से लेह के लिए संपर्क मार्ग बना हुआ था। हुंदर का राजमहल रेशम मार्ग के यातायात में नजर रखने के लिए बनवाया गया था। इसके भौगोलिक औश्र सामरिक महत्व को देखते हुए कई आक्रमणकारियों ने इसे जीतने की कोशिश भी की वे बताते हैं कि नुबरा यानि फूलों की घाटी सिल्क रूट में किसी नखलिस्तान से कम नहीं थी। सिल्क रूट में व्यापार बंद हो जाने के बाद लंबे समय तक नुबरा घाटी उपेक्षित रही है।

वैसे उपेक्षा तो यारकंदी ऊंटों की भी हुई है। उनका स्वर्णिम अतीत जो उन्हें सिल्क रूट के शहंशाह का खिताब दिलाता था आज केवल किताबों में सिमट गया है सन 1870 में कुछ यारकदी ऊंटों को लद्दाख के मुख्यालय लेह में पहुंचाचा गया। पुराने समय में इनका उपयोग भाल ढोने के लिए स्थानीय स्तर पर होता रहा, कितु सड़कों के बन जाने और यातायात के साधनों के सुलभ हो जाने के बाद इनकी उपयोगिता नहीं रही। लेह से लगभग दस किलोमीटर दूर छुशोद नामक गाँव में एक ठिकाना यारकदी ऊटों के लिए बनवाया गया है। इस गांव में अरगोन समूह के लोग भ रहते हैं जिनका अपना अतीत सिल्क रूट व्यापार से जुड़ा रहा है। किराए पर भारवाहक पशुओं को उपलब्ध कराने और व्यापारियों को रास्ता दिखाने के अलावा ये व्यापार में थोड़ा-बहुत हाथ आजमा लेते थे। सिल्क रूट का व्यापार बंद हो जाने के बाद अरगोन ओर यारकदी ऊट दोनो का जीवन बदल गया।

अपनी को कूबड़ वाली पीठ पर मानव के जीवन को सेकड़ों वर्षों तक ढोने वाले यारकदी ऊटों के लिए अब शिआन से बैक्ट्रिया या वाहलीक प्रांत का विशाल भूभाग, पामीर से हिंदुकुश या पारियात्र पर्वत श्रेणी तक की महान पवित्र धरती अलग अलग हिस्सों में बट गई है । यहां के रहवासी अब यह भूल चुके हैं कि वे कभी एक सूत्र से जुड़े हुए थे। रेशम मार्ग अब अतीत की रोचक पहेली की तरह आने वाली संततियों को शायद यह बता सकेगा कि हिमालय में ऐसे कारवा भी कभी चलते रहे हैं जिन्होंने आज के दर्जनों देशों तक व्यापारिक वस्तुएं ही नहीं पहुंचाई हैं वरन संस्कृति अध्यात्म, दर्शन और वैचारिकता के ऐसे आदान-प्रदान भी किए हैं जिनके कारण वसुधैव कुटुबकम' के भाव सही अर्थों में स्थापित हुए। इन सबके पीछे केवल मानव रहा यह कहना नितांत अतार्किक होगा। इसके लिए यारकंदी ऊंटों के प्रति कृतज्ञता का भाव उसी प्रकार उत्पन्न हो जाता है जिस प्रकार चेतक और बेंदुला के लिए होता है।

नोरबू साहब अब भी यारकदी ऊंटों की ढेरों बाते बताते जा रहे थे घड़ी की सुई दोपहर का एक बज गया है, ऐसा बता रही थी। नेरबू साहब के कथनानुसार अब ऊटों के लच का समय हो गया था। सामान्य से कर्मचारियों की तरह ऊटों को भी दो घटे की छुट्टी मिली थी, पर्यटकों की मौज-मस्ती कराने के काम से। उनकी पीठ पर पड़ी झूलों को उतारा जा रहा था। उनकी नकेल को आजाद किया जा रहा था। अभ्यस्त दिनचर्या के अनुरूप सभी चल रहे थे। मेरे सामने यारकदी ऊटों की तीन पीढिया थीं। इनमें बुजुर्गों से लगाकर युवाओं तक और बच्चों की तरह उछल-कूद करते, अपनी ड्यूटी से अनजान उष्ट्र शावकों में से किसी को भी यह अहसास नहीं होगा कि एक जमाने में यहा उनके पुरखों की तूती बोलती थी। एक जमाने में वे सिल्क रूट के शहशाह हुआ करते थे। यह अहसास तो उन पर्यटकों को भी नहीं होगा, जो दो कूबड़ वाले ऊटों की सवारी करने की उत्कृष्ट अभिलाषा लिए वहां पर मौजूद थे और ‘शहशाहों के अपनी नौकरी पर वापस लौटने का इतजार कर रहे थे।

(साभारः साहितय संस्कार, त्रैमासिकी, जबलपुर के प्रवेशांक, जनवरी, 2019 में प्रकाशित)

 

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साभार:- डा.राहुल मिश्र   एंव  2019   मार्च  कॉशुर समाचार

 

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