शिवरात्रि अखरोट हेस्थ डून्य  


शिवरात्रि अखरोट हेस्थ डून्य  

रोशन लाल काचरू    

 

हमारी एक बहन थी-मोहनी जी। वास्तव में वह हमारी पुफी जी थी तन इसका अनुमान हमें बालिग होकर ही शान लगना शुरू हो गया था। पर आयु भी किसी का मजाल या किसी में इतना साहस नहीं था कि उसे पुफी कहे। सुना है कि मोहनी जी तब बिलकुल पा छोटी ही थी कि माता-पिता का साया | सिर से उठा था। पालन पोषण की जिम्मेदारी सीधे अपनी भाई-भाभी यानि हमारे पिता तथा माता जी पर आई थी जो स्वय भी उस समय दो दशक से ही गुजर रहे थे। हमारे एक सीधे साधे चाचा जी थे। पढ़े लिखे थे। हिमाचल नौकरी हेतु गए वहीं विवाहित हुए बाल बच्चे हुए। जमीन जायदाद बनाकर वहीं के हो गए पर हमसे मरणांतक कभी नाता नहीं तोड़ा। जब हिमाचल चले गए तब मोहनी की आयु लगभग आठ नौ वर्ष मेरे बड़े भाई हीरालाल की छ सात और मैं था मझला मेरी आयु चार वर्ष रही होगी। याद आ रहा है चाचा जी हमसे बहुत प्यार करते थे। यहां तक कि मुझे उसी का बेटा माना जाया करता था। चाचा जी पहले स्वयं तथा विवाह पश्चात सपरिवार प्रतिवर्ष कश्मीर आया करते थे। उनकी योग्यता हम कभी नहीं भुला सकते हैं। चार वर्ष पूर्व हमें आहे देकर अस्सी पार करके ईश्वर को प्यारे हो गए।

मोहनी का लालन पोषण यथासंभव लाड़ प्यार से हुआ था। यहां तक सुना है कि पिता जी इसे गोदी लिए मुंह में बोतल थामे चांदरी रात गए तक आंगन के फेरे लगा लगाकर । नींद सुलाते थे। मुझे भी दसवीं श्रेणी तक पूरा पूरा याद है कि माता-पिता । इसके बालों पर मक्खी बैठना सहन नहीं करते। हम तीन भाई थे और वह थी एक ही बहन और वह भी हमसे मनिशी अधिक आयु की नहीं इसलिए आदर के साथ साथ आपसी राज भी बटते थे। बड़ी प्यारी और सीधी साधी बहन थी, पर हमें विशेषकर मुझे डांट लगाने में माहिर थी क्योंकि था तो मैं वास्तव में नटखट । मैं मझला था। बड़ा भाई हीरालाल और छोटा जवाहिर लाल शीतल स्वभाव के थे। इसलिए बहन जी को मुझसे ही अधिक पाला पड़ता था। मैं भी नटखट स्वभाव कारण अपने शरीर की परवाह न करते हुए मानो अपने पर चोटों को न्यौता देता रहा। यहां तक कभी बाजू खराब, कभी पैर पर चोट, कभी सिर पर चोट तो कभी नाक में रक्त। मोनी जी मरहम करने में भी माहिर थी। मैं भी कया करता चोट खाना तो मेरे भाग्य में होता था। एक रात कमरे में हम सोए थे, मा ने मेरे ऊपर ताक पर हमारे लिए पानी भरा पीतल का घड़ा रखा था। बीच रात न जाने बिल्ला कहा से पधारी, दूध समझकर मेरे ही माथे घड़ा गिरा दिया। नोक चुभ गई। रक्त तो बहुत बहा पर रात भर, दर्द तो मोहिनी जी को हुआ। पट्टी तो उसी ने बांधी। एक दिन मुझे दुकान से कुछ चीजें खरीदने के लिए भेजा गया दुकानदार को दूसरे ग्राहक के साथ व्यस्त देखकर मैं दुकान के स्तंभ के चक्कर काटने लगा। स्तंभ दुकान के साथ तीन चार फुट ऊचा था। मुझे क्या पता था कि मेरे मस्तिष्क के भी चक्कर आएंगे और मेरा असान नीचे सड़क पर होगा। पत्थर सिर पर चुभ गए और रक्त ने बहना आरंभ किया। इतना ही था कि मोहिनी दौड़ती-दौड़ती आई। खूब रो पड़ी थी, पर डाटा भी खूब । मजाल था मैं उफ भी करता। यह भी पूरा याद है कि शायद मैं पहली में पढ़ता था। मा से छिपते-छिपते चूल्हे पर इधर-उधर चढ़कर कुछ शैतानी करने लगा कि सीधा गर्म तवे पर गिर पड़ा। चोट कहा खाई आप स्वयं जानिए मुझ तो अभी चोट है. माने जैसे एक सप्ताह पहले ही गिरा था। जब वह बीमार पड़ती तो हम तीनों भाई उसकी सेवा में लग जाते। पूरा लगे रहते उन दिनों डाक्टरों की आदत थी फाकाकशी तीन चार दिन तो कराते ही। इन अवसरों पर हम चुपके से किचन की चोरी करते और मोहिनी के बिस्तरे तक पहुचते।

एक समय हमारी मोहनी बहुत बीमार पड़ गई। मुझे याद है मैं तीसरी में पढ़ता था। उसके शरीर पर छोटे छोटे फोड़े निकल आए। लगभग एक मास इलाज चलता रहा। फोड़े ठीक नहीं हुए। उन दिनों मकानों का निर्माण पूरी मिट्टी के सहारे होता था। हमारा मकान कुछ पुराना था तो नींव की मिट्टी पत्थरों के बीच कहीं कहीं बाहर आई थी। इसे मुलायम देखकर बचपने ने मुझे सुझाया, मैंने एक कटोरी लाई। नींव की कुछ मिट्टी उसमें भरकर पानी में मिलाकर एक नर्म मुलायम लेप बना ली। आंगन में सामने पड़े मुर्गे के पख को डाक्टरी यंत्र मानकर खेल खेल में मोहनी के सारे शरीर पर लेप मल दी। मोहनी आनंद अनुभव करने लगी। ऐसा देख मैं यह खेल करीब एक सप्ताह खेलता रहा। खेल सफल हुआ। मोनी के फोड़े सारे गायब हो गए। मैं डाक्टर बन गया। मेरी खेल की डाक्टरी सफल हुई हमारी मोहनी पीड़ा मुक्त हुई। संभवतः यदि कोई पाठक डाक्टर हो तो वे इस पर गोर करके अपने लिए एक रिसर्च कर सकते हैं कि यह क्या था। इस मिट्टी में क्या शक्ति थी। मेरे लिए तो डाक्टर का नुस्खा सिद्ध हुआ।

मेरे बड़े भाई जी दसवीं में आ गए और मैं आठवीं में। मोनी भी बड़ी होने लगी करीब अठारह। मा का हाथ किचन के काम में बटाती, चूल्हा सुलगाती। एक सायं उसे चूल्हे पर अकेला देखकर मैंने क्या चिढ़ाया कि मैं घर बाहर जान बचाने आगन के गिर्द चक्कर काटता रहा और वह मेरे पीछे पीछे एक बड़ा चिमटा लेकर।

कश्मीरी हिंदुओं का एक पर्व अगस्त या सितंबर मास में आता है जिसे पन्न कहते हैं। कश्मीर में अपने मकानों में रहकर इस पर्व की बड़ी महिमा होती। घर के कमरों को पूर्ण रूप स्वच्छ करके घर की महिलाए कुछ दिन पहले मिट्टी के मोटे मोटे तवे बनातीं। पन्न के दिन इन तवों पर मीठे-मीठे सूखे मेवे सम्मिलित घी के बड़े मोटे-मोटे रोट बनाए जाते। रोट बनाने के पश्चात सारे सदस्यों को एकत्रित होकर मौन नतमस्तक बड़ी मा, दादी की इस पर्व के महत्व सबंधित कहानी सुननी होती। पूजा पाठ क्षमा याचना के पश्चात दादी मा सब सदस्यों में एक-एक रोट बाटती। इस पश्चात पड़ोसियों और नाते-रिश्तेदारों सब में बांटे जाते। आने भाग का रोट देखकर हम बड़े प्रसन्न हो जाते और एकदम लकड़ी के बने अपने पुस्तकों के संदूक में रखकर समय समय पर खाने में मौज उड़ाते। चाय के समय पर और भी रोट मिल जाते। यह देख मोहनी समेत हम अपने भाग का रोट प्रशंसा से दिखाकर खूब चिढ़ाते। रोटों पर नक्शे बने होते। अब वे दिन गए। वे संदूक छिन गए। वे कमरे छिन गए। वे तवे नहीं बनते। वे चूल्हे मकानों समेत छिन गए हमसे। पर्व रहे, श्रद्धापूर्वक मनाते भी हैं पर सच मानिए वह गरिमा नहीं रही। ऋषियों की वादी में ऋषियों का जो आशीर्वाद था वह नहीं रहा। वह वाटिका लुट गई। सुगंध छिन गई।

मोहनी का कंठ सुरीला था। हमारे परिवार की एक रीति बनी थी। सप्ताह में अवश्य एक सायं सारे मिलजुल कर एक दो घंटे प्रभु भजन मंडली करने में लगे रहते। मोहनी का कंठ सबको प्यारा लगता था। पिताजी उसे बार बार भजन गाने को कहते। जन्माष्टमी और शिवरात्रि के पर्व पर रात गए तक हमारे घर पर भजन होते रहते। आनंद आता था। यहां इस समय बीते हुए दिनों की याद सताती है। पर क्या करें। समय का करना था। मैं ग्यारहवीं में आ गया। मोहनी जी का विवाह बोन गांव कजर टंगमर्ग में कौल घर में पक्का हो गया। विवाह संपन्न होने पर यानि अब दुल्हन की विदाई पर उसके साथ ससुराल जाने का आदेश मुझे दिया गया। मैंने स्वयं को मानो बहन का एक अंगरक्षक बनकर उसके साथ जाने में अपनी स्फूर्ति दिखाई तथा एकदम होनहार बालक के रूप में आदेश पालन हेतु उपस्थित रहा। रैणाबारी श्रीनगर से कुञ्जर मोटर-बस द्वारा डेढ़ घंटा लग गया। यहा से बोन गाम एक किलोमीटर खेतों से चलकर तय करना था जिसके बीच एक नाला फीरोजपुर नाला भी पार करना था। दुल्हन के लिए सुसज्जित एक घोड़ा तैयार रखा गया था। मुझे भी किसी के कधे नाला पार कराया गया। ऐसे वैसे चांदनी की सुहानी रात दस बजे बोन गाम पहुंचे।

घर आंगन प्रवेश करते ही पड़ोसियों (प्रति मजबह के अधिकतर मुसलमान वर्ग) तथा परिजनों द्वारा बड़ा स्वागत हुआ। थोड़े समय पश्चात पुरुष बेचारे अपने अपने कार्यों में जुट गए पर महिलाएं कहां अपना मोर्चा छोड़ने वाली थीं। ये सदियों पूर्व पीढ़ी दर पीढ़ी चली हा रही आदतों तथा स्वभाव के अनुसार दुल्हन के निरीक्षण में लग गई। प्रति एक महिला समझो एक एक अनुभवी इंस्पेक्टरनी थी। मोहनी समझो प्रदर्शनी बन गई थी। दुल्हन के वस्त्र कैसे हैं, आकृति कैसी है. कानों-बाजू में क्या कया पहना है, बारात की कैसी खातिरदारी की गई, साथ क्या-क्या लाई है, इस सबका तो निरीक्षण आंगन में आलत स्वागत करने पर ही हुआ और जो कमी रह गई थी उसका निरीक्षण-परीक्षण भलिभाति कमरे में आसन पर बिठाए सास ज्येष्ठरानी जीजी मामी, पुप्फी, मौसी आदि के रिश्तों की पूरी आत्मीयता दिखाकर हुआ। सबने अपनी अपनी डायरी पूरी की।

मैं हक्का-बक्का सब देखता रहा, अपना खून पीकर सहता रहा। दूसरी ओर इसके विपरीत इसी प्रकार की महिला वर्ग ने अपना दूसरा रूप दिखाना आरंभ किया। लई के खासू. तुमबकनारी थालची नटू, छनकी बाजे हाथ की तालियों की सुरमय ताल में भजन आशीर्वाद. आवभगत का गान दो घटे चलता रहा। अगुलियों को चलाने की गति दोनों हाथों का मेल, सुरमय कठ आदि का ऐसा प्रदर्शन हुआ कि सारे प्रशसा करने लगे।

थोड़े समय बाद लड़कियों की एक टोली कमरे में पधारी । दूध चाय भिन्न-भिन्न प्रकार की मिठाईयों, नाना प्रकार की बेकरी (रोटिया बिस्कुट) बिछाए दस्तरखान (शीट) पर पूरी तरह का प्रदर्शन किया गया। हमारा हर प्रकार स्वागत हुआ। प्रेम और स्नेह भरे शब्द-यह खाओ वह उठाओ नहीं नहीं यह लड्डू खाओ, यह बरफी का टुकड़ा खाओ, अरे अरे शरमाओ मत आदि का श्रवण खूब हुआ।

शहर के सीमित प्रांगन में रहने वाली मोहनी अब गांव की हो गई। खुले वातावरण मकान बाग बगीचे जमीन, संपत्ति की मालकिन बन गई। घर परिवार में केवल ससुर जी और पतिदेव ही थे। तीन लड़कियां थीं ससुर जी की, जिनका पहले ही विवाह किया हुआ है। पतिदेव अपने पिता की अकेली पुत्र संतान हैं।

शीघ्र ही हमारी नम्र स्वभाव वाली मोहनी अपनी कथनी-करनी के प्रभाव से ससुराल में सबकी चहेती बन गई। सब परिजनों तथा आसपास के मोहल्लों की भी प्यारी बन गई। मोहनी जी ने अब रानी का नाम पाया। सच मानिए कम समय में रानी सबके दिलों पर राज करने वाली रानी बन गई। दिल इतना विशाल था जो भी याचक दस्तक देता मोहनी/रानी दिल खोलकर प्रसन्नचित्त लॉगिन (करीब एक फुट लंबा हैंडल वाला लकड़ी का बना एक बड़ा लौटा जिसमें दो किलो लगभग चावल समा जाता था) 'लोपुन (मिट्टी और घास का बनाया और ताप में सुखाया हुआ लगभग 5-6 फुट, आदमी के कद का लंबा करीब 3 फुट गोल आकार का बना मटका जिसमें लगभग 50 किलोग्राम चावल-शाली समा सकता था। गांव के हर घर में कई मिलते थे।) में डालकर उनकी झोली भरती थी।

घर और मोहल्ले की रौनक बन गई थी 'रानी' । गर्मी-सर्दी मौसम में प्रातः मंदिर में सबसे पहले लीपन करके पहली घंटी बजाने वाली हुआ करती थी रानी।

शरीर की पतली मोहनी मायके से चालीस मील दूर थी, पर दिल की कोमल मोहनी-रानी हमसे कभी दूर नहीं हुई। उन दिनों दूरभाष आदि संचालन का प्रबंध बहुत बहुत कम था। हमें मास में कम से कम एक दो बार अवश्य उसकी खबर लेने पिता के आदेश का पालन करना होता था।

जन्माष्टमी (कृष्ण जन्म) पर रीति अनुसार ग्यारह-बारह बजे तक चालीस मील की दूरी रैना बारी से बोन गाम तक तांगा, बस और अपनी टांगों के सहारे कंध पर फलों का बोरा लादकर पहुंचना होता था। बोरे में समय के सारे फल-मेवे होने चाहिए थे रानी ठाठ से खरबूजे तरबूजे, नाशपाती, सेब, नए बादाम, नए अखरोट, गिलास, आलूचे, गुरदालू, आडू, पम्बछ (कमल फल) मोहल्ले में बांटने निकलती। खुशी खुशी मायके का बढ़ावा दिखाने। अपने मायके की शान बढ़ाने।

कश्मीरी पंडितों का एक महत्वपूर्ण पर्व है 'पन्न । वर्ष के अगस्त-सितंबर में इस पर्व के चार पांच दिन के मुहूर्त होते हैं। श्रद्धापूर्वक सारे घर को एक सप्ताह पहले हर प्रकार से स्वच्छ रखा जाता है। घर की महिलाएं पवित्रता रखने में और देखने में किसी प्रकार की कोताही सहन करने वाली नहीं होती हैं। यहा पुरुषों को निष्ठावान, आज्ञाकारी, सदाचारी, ब्रह्मचारी सब कुछ बनकर रहना पड़ता है। पर्व के दिन प्रातः होने से पूर्व घर की पुनः सफाई होती है। नहा-धोकर स्वच्छ कपड़े पहनकर महिलाए रसोई घर में प्रविष्ट होती हैं। नारियल, किशमिश, देसी घी, चीनी, शक्कर के स्वादिष्ट मोटे मोटे रोट (मोटी रोटिया) बनाने का कार्य आरभ होता है। प्रथानुसार प्रायः घर के प्रति सदस्य के नाम के एक पाव (250 ग्राम) का आटा गूदा जाता है और लगभग 50-60 मीठे-मीठे रोट बनाने का कार्य तीन चार घंटे चलता है। रोट बनने के पश्चात सारे सदस्य एकत्र होते हैं। दोनों हाथों में अर्घ पुष्प दुवा धूप दीप लेकर नतमस्तक श्रद्धाभावना से इस पर्व संबंधी महत्व की कथा घर की बड़ी महिला अर्थात दादी, माता के मुख से सुननी होती है। कथा श्रवण के पश्चात भजन, क्षमायाचना आरती होती है। तत्पश्चात सदस्यों में एक एक रोट प्रसाद के तौर पर बांटा जाता है। हाथों में मोटे-मोटे रोट देखकर सदस्यों में प्रसन्नता की झलक खिल उठती है। प्रसाद वितरण मोहल्ले तथा नातेदारों में होता है।

हमें भी दूसरे दिन बहन के घर प्रसाद लेकर जाना होता था।

शिवरात्रि महोत्सव हममें से कोई नहीं भूलेगा । यदि शिवरात्रि समाप्ति यानी अमावस्या अर्थात् डून्य अमावस्या या वटुक परमूजुन' के दूसरे ही दिन उसके पास शिवरात्रि खर्च, नैवेद्य यानी अखरोट और घर की बनी चावल आटे की छोटी छोटी रोटियां (चोंचवोर) तथा नानबाई की रोटियां न पहुचती तो हमारी खैर नहीं होती। उसे अधिकार था इसका। अपने भोग की अधिकारिणी थी, वह। गांव के हर घर हिंदू-मुसलमान में प्रसन्नतापूर्वक उनको अपने हाथों अपना यह हक पहुचाने निकल पड़ती। गांव की बहू बनकर शिवरात्रि प्रसाद वितरण में वह गौरव अनुभव करती।

मोहनी के पास शिवरात्रि नैवेद्य कौन ले जाए, हम भाईयों में दौड़ लग जाती। क्योंकि वहा उसकी अपने भाईयों के लिए सुरक्षित स्वादिष्ट मछली खाने को मिलती।

वर्ष बीतते गए। हम भाई भी बच्चों वाले गृहस्थी बन गए पर अपनी ओर से रीति निभाने में कभी संकोच नहीं आने दिया। पर मेरी किस्मत, एक वर्ष प्रसाद पहुचाना मेरे जिम्मे रखा गया था। बोन गाम जाने के लिए एक दिवस का अवसर न मिलने पर कुछ दिनों देरी हुई। शिवरात्रि नैवेद्य सप्तमी तक ही लेना होता है दूसरे दिन तिल अष्टमी के दिन नहीं ले जा सकते हैं। मैं छठे दिन पहुंचा। छः दिन आशा भरी ताक लगाए मोहनी ने सुना मैं आया हू। छिप गई लगभग दो घंटे। संदेशा भेजा-उसे बोलो वापस जाओ। चले जाओ यहां से। मैंने अखरोट बांट दिए हैं। मेरा ससुराल गांव में है। अखरोटों के कई वृक्ष हैं हमारे पास-उसे बोलो चले जाओ।

मैं आत्मग्लानि से नतमस्तक रहा। न हिला-न डुला। शर्मिंदा हूँ। अपनी ग्लानि नतमस्तक प्रकट करता रहा। आखिरकार कुछ समय ओर बिताकर नजरे छिपाते छिपाते मोहनी कमरे में प्रविष्ट हुई। मुझसे नजरें हटाते इधर-उधर के कार्य में अपने आपको व्यस्त प्रकट किया। मैं उठा चरणों पर पड़ गया। अश्रुपूर्ण ग्लानि प्रकट की । अपनी विवशता बताई। तब मोहनी का दिल पिघला। बाहर बरामदे में आ गई। ऊंचे स्वर का पिटारा बजाने। देखो भाई आया है। भाई आया है। होती है मजबूरी-हुई कुछ देरी-आखिर शहर में नौकरी का सवाल होता है। आओ-अखरोट खाओ, नैवेद्य ले लो। निकल पड़ी नैवेद्य बाटने।

रात्रि के भोज की थाली पर मेरी दृष्टि सबसे पहले छ दिन सुरक्षित रखी हुई मछली पर पड़ी। मोहनी हमेशा की तरह सामने बैठी थी। मुस्कराती हुई। 'खाओ भाई टाळ्या खाओ। उठाते जाओ ना-वह कहती जा रही थी। खेद है अब मोहनी नहीं रही-केवल रहीं हमारे लिए उसकी यादें-जो सदा याद आती हैं।

अस्वीकरण :

उपरोक्त लेख में व्यक्त विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं और kashmiribhatta.in उपरोक्त लेख में व्यक्त विचारों के लिए किसी भी तरह से जिम्मेदार नहीं है। लेख इसके संबंधित स्वामी या स्वामियों का है और यह साइट इस पर किसी अधिकार का दावा नहीं करती है।कॉपीराइट अधिनियम 1976 की धारा 107 के तहत कॉपीराइट अस्वीकरणए आलोचनाए टिप्पणीए समाचार रिपोर्टिंग, शिक्षण, छात्रवृत्ति, शिक्षा और अनुसंधान जैसे उद्देश्यों के लिए "उचित उपयोग" किया जा सकता है। उचित उपयोग कॉपीराइट क़ानून द्वारा अनुमत उपयोग है जो अन्यथा उल्लंघनकारी हो सकता है।

साभार:-  रोशन लाल काचरू  एंव  2019   मार्च  कॉशुर समाचार

 

Online Chat

© 2021 - All Rights Reserved