Supermacy of Truth सत्य की प्रतिष्ठा

Supermacy of Truth सत्य की प्रतिष्ठा

एक थे पंडित जी । नाम था सज्जनप्रसाद थे भी सज्जन, सदाचारी और ईश्वरभक्त, किंतु धर्म का कोई विज्ञानसम्मत स्वरूप भी है, यह वे न जानते थे।

प्रतिदिन प्रातः काल पूजा समाप्त करके पंडित जी शंख बजाते। वह आवाज सुनते ही पड़ोस का गधा किसी गोत्र बंधु की आवाज समझकर स्वयं भी रैंक उठता। पंडित जी प्रसन्न हो उठते कि यह कोई पूर्वजन्म का महान तपस्वी और भक्त था। एक दिन गधा नहीं चिल्लाया। पंडित जी ने पता लगाया। मालूम हुआ कि गधा मर गया। गधे के सम्मान में उन्होंने अपना सिर घुटाया और विधिवत् तर्पण किया। शाम को वे बनिए की दुकान पर कुछ सौदा लेने गए। बनिए को शक हुआ, पूछा- “महाराज, आज यह सिर घुटमुंड कैसा ?" पंडित जी बोले- " अरे भाई शंखराज की इहलीला समाप्त हो गई है।"

बनिया पंडित का यजमान था, उसने भी अपना सिर घुटा लिया। बात जहाँ तक फैलती गई, लोग अपने सिर घुटाते गए। छूत बड़ी खराब होती है। एक सिपाही बनिए के यहाँ आया उसने तमाम गाँव वालों को सिर मुड़ाए देखा, पता चला शंखराज जी महाराज नहीं रहे, तो उसने भी सिर घुटाया। धीरे धीरे सारी फौज सिर-सपाट हो गई। अफसरों को बड़ी हैरानी हुई। उन्होंने पूछा- “भाई बात क्या हुई ?" पता लगाते-लगाते पंडित जी के मकान तक पहुँचे और जब मालूम हुआ कि शंखराज कोई गधा था, तो मारे शरम के सबके चेहरे झुक गए।

एक अफसर ने सैनिकों से कहा-' ‘ऐसे अनेक अंधविश्वास समाज में केवल इसलिए फैले हैं कि उनके मूल का ही पता नहीं है। धर्म परंपरावादी नहीं, सत्य की प्रतिष्ठा के लिए है। वह सुधार और समन्वय का मार्ग है। उसे ही मानना चाहिए।"

साभारः- अगस्त, 2004, अखण्ड ज्योति, पृष्ठ संख्या - 52