Duty and Sustenance कर्त्तव्य और निर्वाह
पांडवों ने एक तपस्वी ब्राह्मण के लिए भोजन का निमंत्रण भेजा। ब्राह्मण ने अन्यमनस्क मन से स्वीकार तो कर लिया, पर उसकी आँखों में आँसू आ गए ।
युधिष्ठिर ने सारा वृत्तांत सुना तो उनकी आँखों के आँसू भी न रुके। इतने में कृष्ण आए। उन्होंने भी अपनी दिव्य दृष्टि से सारा वृत्तांत जान लिया और वे भी रोने लगे। अर्जुन आए तो उन्होंने भी अपने बड़ों को रोते देखा तो आँसू वे भी न रोक सके ।
जब ब्राह्मण भोजन कर चुके तो तीनों के प्रसंग में जुड़ी हुई सब बातें उगल देने का अनुरोध किया गया। ब्राह्मण ने कहा- “नित्य स्वयं उपार्जित खाता था। आज पराया धान्य खाना पड़ेगा । न जाने वह कुधान्य तो न होगा। इस असमंजस से मैं दुखी था। राजा का आदेश टालने में भी खैर न थी।"
युधिष्ठिर ने कहा- " -“मैं इसलिए रो पड़ा कि हमारा धान्य यदि नीति-उपार्जित ही होता तो को इस असमंजस में न पड़ना पड़ता ?” ब्राह्मण
कृष्ण ने कहा- “अभी द्वापर है, लोगों को उचित-अनुचित का ज्ञान है, पर आगे ऐसा समय आएगा, जब कुधान्य के लिए सभी लालायित रहेंगे।"
अर्जुन ने कहा-“हमने महाभारत तो जीता, पर ऐसी व्यवस्था न बनाई, जिससे नीति निर्धारणों को तोड़ने की किसी की हिम्मत ही न पड़े। अपने कर्त्तव्यों का स्मरण और निर्वाह न हो सकना सचमुच रोने जैसी बात ही है। "
साभारः- अगस्त, 2004, अखण्ड ज्योति, पृष्ठ संख्या -38
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