Controversy and Dialogue विवाद और संवाद

Controversy and Dialogue विवाद और संवाद

विद्वानों की संगोष्ठी में परिचर्चा हो रही थी। प्रत्येक विचार पर वाद-विवाद हो रहा था। विद्वानों की इस सभा में एक तेजस्वी संन्यासी भी खड़े थे। वे इस सभा में उपस्थित अवश्य थे, पर भागीदार नहीं थे। यहाँ सभी की सब बातें सुनते हुए उन्हें लगा कि विवाद विचारों पर नहीं 'मैं' पर है। कोई कुछ सिद्ध नहीं करना चाहता है। सब केवल अपने-अपने 'मैं' को प्रमाणित करना चाहते हैं।

वैसे भी जड़ें हमेशा ही अप्रत्यक्ष होती हैं, दिखाई नहीं देतीं। जो दीखता है, वह मूल नहीं है। फूल-पत्तों की तरह जो दीख रहा है, वह गौण है। उस दीखने वाले पर रुक जाएँ तो समाधान नहीं है, क्योंकि समस्या वहाँ है ही नहीं। दरअसल समस्या जहाँ है, समाधान भी वहीं है। विवाद कहीं नहीं पहुँचते। जहाँ विवाद है, वहाँ कोई दूसरे से नहीं बोलता। सभी केवल अपने आप से ही बातें करते रहते हैं। दिखाई भर देता है कि बातें हो रही हैं, विचार-विमर्श हो रहा है।

 महान संन्यासी यह विद्वानों का वाद-विवाद देख रहे थे, इसके पहले उन्होंने एक पागलखाने में पागलों का वाद-विवाद देखा था। वहाँ दो पागल विचार-विमर्श में तल्लीन थे। हाँ! एक अचरज जरूर था कि जब एक पागल बोलता तब दूसरा चुप रहता, पर उन दोनों की बातों में कोई संगति नहीं थी। उन्होंने उनसे पूछा कि जब तुम्हें अपनी ही कहनी है तब फिर दूसरे के बोलने के समय तुम चुप क्यों हो जाते हो। उत्तर में दोनों पागल जोरों से हँसे और बोले-“परिचर्चा के सामान्य नियम हमें भी मालूम हैं। एक के बोलते समय दूसरे को चुप रहना चाहिए।"

वह संन्यासी इन दोनों परिचर्चाओं के साक्षी थे। दोनों ही स्थानों पर केवल विवाद था; क्योंकि संवाद तो तभी संभव है जब 'मैं' से पीछा छूटे और यह 'मैं' केवल प्रेम से छूट पाता है। जहाँ प्रेम है, संवाद केवल वहीं हो पाता है। वहीं पर विचारों को, भावों को मस्तिष्क व हृदय आत्मसात् कर पाते हैं। अन्यत्र तो केवल विवाद और विक्षिप्तता का शोरगुल है।

साभारः- सितंबर, 2012, अखण्ड ज्योति, पृष्ठ संख्या - 03