Pride गर्व

Pride गर्व

एक संत के तप, त्याग और ज्ञान की चर्चा सुनकर राजा ने उन्हें आमंत्रित किया। उनके आगमन पर मार्ग में मूल्यवान कालीन बिछा दिए गए। संत कीचड़ सने पाँवों से उन्हें गंदा करते हुए उस तक पहुँचे। मंत्री से न रहा गया, वह उसका कारण पूछ बैठा। संत बोले "राजा को अपने राजपद का गर्व है, उसको प्रदर्शित करने के लिए उसने कालीन बिछवा दिए। बिछी कालीनों को गंदा कर मैं उस गर्व को चूर चूर कर रहा हूँ ।”

“किंतु भगवन् ? गर्व से गर्व कैसे चूर होगा ?” मंत्री के इस प्रश्न ने उन्हें निरुत्तर कर दिया और वे अपनी भूल सुधारने के लिए वापस लौट पड़े। गर्व चाहे वैभव का हो अथवा त्याग का, समान रूप से दोनों ही दोषपूर्ण हैं।

साभारः- जनवरी, 2006, अखण्ड ज्योति, पृष्ठ संख्या - 20