False Ego मिथ्या अहंकार

False Ego मिथ्या अहंकार

राजा अश्वघोष की ख्याति बहुत थी। उनके बारे में प्रसिद्ध था कि वे विद्वता को तुरंत पहचान लेते हैं और विद्वानों का यथोचित सम्मान भी करते हैं। उनकी ख्याति सुनकर काशी के दो पंडित उनके दरबार में पहुँचे। वहाँ पहुँचकर दोनों ने अहंकार से लिप्त भाषा में अपनी-अपनी प्रशंसा करनी प्रारंभ करी। दोनों की आडंबरपूर्ण भाषा एवं मिथ्या अहंकार से राजा अश्वघोष का मन बड़ा क्षुब्ध हुआ। उन्होंने दोनों की परीक्षा लेने की सोची। राजा ने दोनों पंडितों को एकांत में एक-एक कर के बुलाया और उनसे अपने साथी पंडित का परिचय पूछा। पहले पंडित ने दूसरे के बारे में बोला "अरे! वो तो निरा गधा है। उसे तो शास्त्रों का जरा भी ज्ञान नहीं।" दूसरा पंडित बोला- “महाराज! मेरे साथी के बारे में आपको क्या बताऊँ ? वो तो एक सिरफिरा बैल है।" जब उन पंडितों के जाने का समय आया तो राजा ने एक को उपहार में भूसा और दूसरे को चारा दिया। यह देखकर दोनों क्रोध से आगबबूला हो गए और बोले – “ये क्या महाराज! हमने तो आपकी बड़ी प्रशंसा सुनी थी कि आप बड़े ज्ञानी व्यक्ति हैं, पर आपने ये हमारा कैसा अपमान किया है ?" राजा अश्वघोष बोले- "पंडित जनो! इसमें मेरा कोई दोष नहीं। ये उपहार तो उसी परिचय का परिणाम है, जो आप विद्वत्जनों एक दूसरे का दिया।" महाराज के कथन का अर्थ दोनों की समझ में आ चुका था। दोनों ने भविष्य में ऐसी गलती न दोहराने का वचन दिया और ज्ञान के मूल भाव को जीवन में उतारने का संकल्प लिया, तब राजा ने दोनों को ससम्मान विदा किया।

साभारः- सितंबर, 2012 % अखण्ड ज्योति, पृष्ठ संख्या - 53