कहते हैं कि आरंभ मे चंद्रमा बहुत सुंदर था। हर घड़ी हँसता रहता। चेहरा खिले कमल जैसा सुंदर लगता। कुछ दिन बाद वह उदास रहने और खीजने लगा। अतएव कलाएँ घटने लगीं। चेहरा मुरझाया और सिकुड़ा-सा क्षीण होने लगा। दिन बीतते गए, अमावस्या आते- आते वह काला-कुरूप हो गया।कलाएँ समाप्त हो गईं और अँधेरी कोठरी में दिन काटने लगा।ब्रह्मा जी इस दुर्दशा को देखकर बोले, मूर्ख हँसना-मुसकराना फिर आरंभ कर, उसके बिना किसी की जिंदगी पार नही होती। खीजने से तो बेमौत मरेगा।चंद्रमा ने अपनी भूल सुधारी, उसने प्रसन्नता बिखेरना आरंभ किया और बढ़ते-बढ़ते पूर्णिमा को फिर खिले कमल जैसा हो गया।